फ़रिश्ता
फ़रिश्ता
कौन था वो
कहाँ से आया था
शायद फ़रिश्ता था कोई
चीर चीरा निर्मम दरिंदों ने जब
लाज की चादर से दामन ढक गया
देह को चुभती जग की काँटों सी निगाहें
आंगन फूलों का चितवन महका गया
भीगे पट सी पीड़ा लिपटी रहती थी तन से
हृदय में चिर संचित अनुराग भर गया
अपमान की सुलगती थी जवाला हृदय में
तपती श्वासों पर मेघ सा बरस गया
कोरे काग़ज़ सी अनलिखी जीवन की पाती
सपनों के नभ पर इन्द्रधनुषी रंग भर गया
नीरवता बसती थी उर के हर कण में
वह नूपुर सी रून झुन झंकार भर गया
हाँ वो फ़रिश्ता ही था
रेखा