प्रेम
प्रेम कोई मंजिल नहीं है जिसको पाना हर हाल में जरुरी है यह तो जीवन पर्यंत खत्म ना होने वाले एक यात्रा की तरह है जिसमें यात्री जीवन भर का आनंद प्राप्त कर सकता है।
मनुष्य एक भावनात्मक प्राणी है और सभी भावनाओं में सबसे प्रबल भावना अगर कोई है तो वह है आनंद की प्राप्ति करना और प्रेम आनंद का ऐसा स्रोत है जो कभी सूखता नहीं और यही कारण है कि प्रत्येक मनुष्य का हृदय प्रेम का अभिलाषी होता है। परन्तु सबसे बड़ी मुश्किल तब होती है जब लोग सिर्फ शारीरिक आकर्षण को प्रेम समझ लेते हैं।
प्रेम एक शान्त बहती हुई नदी के समान है जो एक बंजर जीवन को प्रसन्नता की हरियाली से भर देता है परन्तु आकर्षण उस नदी में बाढ़ की तरह है जो मर्यादाओं के सारे बंधन को तहस नहस करके प्रेम की निर्मलता को प्रदूषित कर देती है।
सच यह भी है कि प्रेम की शुरुआत आकर्षण से ही होती है परन्तु यदि इस आकर्षण रुपी बाढ़ को संयम रुपी बांध से नियंत्रित कर दिया जाए तो फिर इस प्रेम की पवित्रता को बरकार रखा जा सकता है।
परन्तु बांध बनाने का मतलब यह नहीं की प्रेम को ही बंधन में जकड़ लिया जाए। इसका स्वतंत्र और नियंत्रित रुप में बहते रहना आवश्यक है।
प्रेम अगर स्वतंत्र रुप से बहे तो इसकी निर्मलता बनी रहती है परंतु यदि इसे तालाब के जल की भांति अगर किसी सीमाओं में बांध दिया जाए तो फिर इसमें दुर्गंध आना भी लाजमी हो जाता है। इसलिए प्रेम करना जितना आसान होता है उसकी निर्मलता जीवन पर्यंत बरकरार रखना उतना ही मुश्किल है।