प्रेम
21. प्रेम
प्रेम नाम है तेरे मद में सब कुछ खो जाने के बाद ,
भूल जाये मन मैं तुम सब कुछ और रहे ना कुछ भी याद ।
मन में तुम हो तन में तुम हो और तुम्ही चितवन के छोर ,
कान्हा की बंसुरी तुम्ही हो और तुम्ही उपवन मे मोर ।
सूरदास के बालसखा तुम मीरा के तुम ही हो श्याम,
कौशल्या के प्राणप्रिये तुम और सिया के हिय में राम ।
प्रेम सुरा है प्रेम सुंदरी प्रेम एक मधुशाला है ,
मस्जिद भी है गिरजा भी है शिव का यही शिवाला है ।
प्रेम पॉव से लंगड़े का है गूंगे का वाणी से प्रेम,
जीवन भर जो तृप्त न होता अंत समय नाड़ी से प्रेम ।
आँखों से जो कुछ दिखता है केवल मन का धोखा है ,
जो मन की आँखों से दिखता वो ही प्रेम अनोखा है ।
माया मोह सभी मिथ्या है पुत्र मित्र सब बाराती ,
फूँक डालते हैं पल भर में कंचन काया मदमाती ।
उसी प्रेम में पागल है जग जो मन को भरमाता है ,
चाह मिटे सब जिसको पाकर उसका नाम विधाता है ।
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प्रकाश चंद्र , लखनऊ
IRPS (Retd)