प्रेम बसा कण कण में
मातृशक्ति का सौंदर्य धरा , प्रेम वसा कण कण में
सृजन पालन पोषण करती ,मां वसी हुई जीवन में
संभव नहीं प्रकृति विन जीवन, सौंदर्य नहीं जन मन में
पोर पोर सौंदर्य प्रेम, सृजन समाया तन में
जलचर थलचर नभचर नाना,जीव प़कृति ने जाए
नाना वनस्पति अन्न फल,पालन को उपजाए
जल जंगल जमीन धरा पर, जीवन गीत सुनाए
शैल शिखर नदियां सागर,पवन मंद मुस्काए
पुष्प लताएं सुरभित सुगंध, मनोहर छटा कही न जाए
मां सा नहीं सुंदर कोई जग में, समग्र सौंदर्य वोध समाए
मां की मां धरती मां हैं, कौन कवि उपमा कह पाए
अनुपम सौंदर्य प्रेम सृजन, लालन पालन सुख उपजाए
मातृशक्ति प्रकृति हैं, जिनके सब हैं जाए
अंतस वाह्य सौंदर्य रूप गुण, महिमा कही न जाए
सुरेश कुमार चतुर्वेदी