प्रेमाश्रयी संत काव्य धारा
धर्म का प्रवाह कर्म, ज्ञान, और भक्ति इन तीन धाराओं में चलता है । इन तीनो के सामंजस्य से धर्म अपनी पूर्ण सजीव दशा में रहता हैं । किसी एक के भी अभाव से वह विकलांग रहता है । कर्म के बिना लूला लंगड़ा, ज्ञान के बिना अन्धा और भक्ति के बिना हृदयविहीन क्या निष्प्राण रहता है । कालदर्शी भक्त कवि जनता के हृदय को सँभालने और लीन रखने के लिए दबी हुई भक्ति को जगाने लगे । क्रमशः भक्ति का प्रवाह ऐसा विकसित और प्रबल होता गया कि उसकी लपेट में केवल हिन्दू जनता ही नहीं, देश में बसनेवाले सहृदय मुसलमानों से भी न जाने कितने आ गये । प्रेमस्वरूप ईश्वर को सामने लाकर भक्त कवियों ने हिंदुओं और मुसलमानों दोनो को मनुष्य के सामान्य रूप में दिखाया और भेदभाव के दृश्यों को हटाकर पीछे कर दिया । इसी समय हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल का प्रारम्भ हुआ जो कि साहित्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान रखता है । आदिकाल के बाद आए इस युग को पूर्व मध्यकाल भी कहा जाता है । पूर्व मध्यकाल की समयावधि 1375 वि. स. से 1700 वि. स. तक मानी जाती है । यह हिन्दी साहित्य का श्रेष्ठ काल था । इस समय भक्ति की दो धाराएं समानांतर चलती रहीं । भक्ति के उत्थान काल के भीतर हिन्दी भाषा की कुछ रचना पहले कबीर की मिलती हैं । संक्षेप में भक्ति-युग की चार प्रमुख धाराएं मिलती हैं ।
1. निर्गुण भक्ति 2. सगुण भक्ति
1. ज्ञानाश्रयी शाखा 1.रामाश्रयी शाखा
2. प्रेमाश्रयी शाखा 2.कृष्णाश्रयी शाखा
प्रेमाश्रयी शाखा इस काल के निर्गुणोपासक भक्तों की दूसरी शाखा, उन सूफी कवियों की है, जिन्होनें प्रेम गाथाओं के रूप में उस प्रेम तत्व का वर्णन किया है, जो ईश्वर को मिलने वाला है तथा जिसका आभास लौकिक प्रेम के रूप में मिलता है । इसमें सूफियों की शैली बहुत सुंदर, रहस्यमयी और प्रेम भाव की व्यजंना लिए रही ।
निर्गुण प्रेमाश्रयी शाखा के प्रमुख कवियों का परिचय में मलिक मुहम्मद जायसी, कुतबन, उसमान, शेख नवी, कासिमशाह, नूर मुहम्मद, मुल्ला दाउद आदि शामिल हैं। हिंदी साहित्य में सूफी काव्य परम्परा का समय लगभग 14वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक है । सामान्यतः माना जाता है कि इस परम्परा का सूत्रपात 1379 ई. में मुल्ला दाउद की रचना ‘चंदायन’ या ‘लोरिकहा’ से हुआ है । इस धारा के सबसे महत्वपूर्ण कवि मलिक मुहम्मद जायसी हैं । जिन्होने ‘पदमावत’, ‘अखरावट’ और ‘आखिरी कलाम’ जैसे प्रसिद्ध काव्यों की रचना की ।
मलिक मुहम्मद जायसी : जायसी के जन्म और मृत्यु की कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं हैं । ये हिंदी में सूफी काव्य परंपरा के श्रेष्ठ कवि माने जाते हैं । ये अमेठी के निकट जायस के रहने वाले थे, इसलिए इन्हे जायसी कहा जाता है । जायसी अपने समय के सिद्ध फकीरों में गिने जाते हैं । अमेठी के राजघराने में इनका बहुत मान था । जीवन के अंतिम दिनों में जायसी अमेठी से दो मील दूर एक जंगल में रहा करता थे । वहीं उनकी मृत्यु हुई । काजी नसरूद्दीन हुसैन जायसी ने जिन्हे अवध में नवाब शुजाउद्दौला से सनद मिली थी । अपनी याददाश्त में जायसी का मृत्युकाल 4 रजब 949 हिजरी लिखा है । यह काल कहाँ तक ठीक है, नहीं कहा जा सकता । ये काने और देखने में कुरूप थे । कहते हैं कि शेरशाह इनके रूप को देखकर हँसा था, इस पर यह बोले “मोहिका हँसेसि कि कोहरहि ?” इनके समय में भी इनके शिष्य फकीर इनके भावपूर्ण दोहे, चौपाइयाँ गाते फिरते थे । इन्होने तीन पुस्तकें लिखी – एक तो प्रसिद्ध ‘पदमावत’, दूसरी ‘अखरावट’, तीसरी ‘आखिरी कलाम’ । कहते हैं कि एक नवोपलब्ध काव्य ‘कान्हावत’ भी इनकी रचना है । किंतु कान्हावत का पाठ प्रामाणिक नहीं लगता, अखरावट में देवनागरी वर्णमाला के एक अक्षर को लेकर सिद्धांत सम्बंधी तत्वों से भरी चौपाइयाँ कही गयी हैं । इस छोटी सी पुस्तक में ईश्वर, सृष्टि, जीव, ईश्वर प्रेम आदि विषयों पर विचार प्रकट किये गये हैं । आखिरी कलाम में कयामत का वर्णन है । जायसी की अक्षत कीर्ति का आधार है पद्मावत, जिसके पढ़ने से यह प्रकट हो जाता है कि जायसी का हृदय कैसा कोमल और प्रेम की पीड़ा से भरा हुआ था, क्या लोकपक्ष में, क्या अध्यात्मपक्ष में, दोनों ओर उसकी गूढ़ता, गंभीरता और सरसता विलक्षण दिखाई देती है । जायसी के काव्य में निर्गुण प्रेमाश्रयी काव्य की विभिन्न विशेषताएँ दिखाई पड़ती हैं ।
(क) भावगत विशेषताएँ :
1.सूफी दर्शन या ‘तसव्वुफ’ का आधार: सूफी कवियों ने तसव्वुफ के दर्शन को मान्यता देते हैं । अर्थात वे अपने इश्क को इश्क्मजाजी से इश्कहकीकी (सिद्धावस्था) तक ले जाता है ।
2. प्रेम की मूल्य के रूप में स्थापना : इनका प्रेम इश्कमजाजी (लौकिक प्रेम) से शुरू होकर इश्कहकीकी (आलौकिक प्रेम) तक पहुँचता हैं । जायसी ने पदमावत में लिखा है कि
“मानेस प्रेम भएउ बैकुण्ठी, नाहिं ते काह छार एक मूठि ।“
3. सांस्कृतिक समन्वय का सूत्रपात : हिंदु मुस्लिम एकता का समन्वयवादी दृष्टिकोण रहता है । इस्लामी मान्याताओं को भारतीय वेदांत तथा प्रेम-तत्व का समन्वय किया । भारत की प्रबंध काव्य परम्परा और मसनवी शैली का समन्वय किया । भारतीय प्रथाओं, उत्सवों, तीर्थ व्रतों, जादू टोनो का प्रयोग किया ।
4. लोक कथाओं का प्रतीकात्मक चित्रण : हिंदु समाज की प्रेम-कथाओं को अपने काव्यों का आधार बनाया । लौकिक प्रेम से उसके आलौकिक प्रेम में परिवर्तन का काव्य रचा । जैसे पद्मावती खुदा का प्रतीक है जबकि रत्नसेन बंदे का ।
5. रहस्यवाद : इस धारा के कवियों का प्रेम अमूर्त ईश्वर के प्रति होने के कारण रहस्यवादी हो गया । यह रहस्यवाद अद्वितीय भावुकता, प्रेम और सरसता से युक्त है इसमे साधक बंदे और प्रेमिका को खुदा के रूप में देखा गया है तथा दोनो के एकत्व की कल्पना की गई है ।
“ नयन जो देखा कँवल भा, निरमल नीर सरीर ।
हँसत जो देखा हँस भा, दसन जोति नग हीर ॥ “
इन्होंने साधनात्मक रहस्यवाद के संकेतों को अपने काव्य में शामिल किया तथा इसमें रहस्यवाद लाये।
“गढ़ तस बाँक जैसी तोरी काया, पुरूष देखु ओही के छाया ।“
“दसवँ दुआर ताल कै लेखा, उलट दिस्ट जो लाव सो देखा ॥“
6. प्रकृति का रागात्मक चित्रण : इन्होने प्रकृति को ही खुदा की अभिव्यक्ति मानकर सुख-दुख की अनुभूतियों से जोड़ा है । प्रकृति का प्रयोग आलम्बन व उद्दीपन रूप में भी किया है । बारह-मासा या षट-ऋतु की अपूर्व छटा इन कवियों के काव्य में मिली है । जैसे पदमावत का नागमती वियोग वर्णन विशिष्ट है । प्रकृति दुख दूर करने में सहायक होती है ।
“तू फिरि-फिरि रोव, कोउ नहिं डोला, आधी रात विहंगम बोला ।
तू फिरि-फिरि दाहै सब पाँखी, केहि दुख रैनि न लावसि आँखि ॥“
7. विरह का अतिश्योक्तिपूर्ण वर्णन : विरह की अभिव्यक्ति अतिश्योक्तिपूर्ण व ऊहात्मक शैली में हुई है । जो अरबी फारसी काव्य परम्परा से प्रभावित दिखते हैं ।
“पिउ सों कहेउ संदेसड़ा, हे भौंरा हे काग ।
सो धनि विरहे जरि मुई, तेहिक धुआँ हमहिं लाग ॥“ या
“दहि कोयला भइ कंत सनेहा, तोला माँसु रहा नहिं देहा ।
रकत न रहा, विरह तन जरा, रती-रती होई नैनन्ह ढरा ॥“
8. गुरू की प्रतिष्ठा : अमूर्त ईश्वर की प्राप्ति में रत साधक को मंजिल तक पहुँचाने में मार्ग-दर्शक गुरू कहलाता है जो साधक को शैतान (माया) के पंजे से बचाता है । संत काव्य में यह जरूरी नहीं समझा गया है मार्गदर्शक (गुरू) इंसान हो या कोई पशु पक्षी भी हो सकता है । जैसे पदमावत काव्य में हीरामन तोता गुरू की भूमिका में है ।
“गुरू सुआ जेहि पंथ दिखावा, बिन गुरू जगत को निरगुन पावा ॥“
(ख) शिल्पगत विशेषताएँ :
1.काव्य रूप : प्राय: सभी प्रेमाख्यान प्रबंधात्मक हैं । इन प्रबंधों में सूफियों ने भारतीय प्रेम कहानियों के कलेवर में सूफी सिद्धांतों को कुशलतापूर्वक प्रस्तुत किया है । डा. गणपतिचंद्र गुप्त ने सिद्ध किया है कि इनकी शैली भारतीय है न कि मसनवी ।
2. भाषा : इनकी भाषा ठेठ अवधी है , मुहावरेदार है । इन्होने अरबी, फारसी, उर्दू, भोजपुरी एवं लोक भाषाओं के शब्दों का बहुतायत प्रयोग किया है । जो इनकी समन्वयवादी दृष्टि का प्रतीक है
3. छंद : सूफी काव्य धारा में दोहा और चौपाई छ्न्दों का प्रयोग हुआ है । पदमावत में 7 दोहो के बाद 1 चौपाई है, अन्य सूफी काव्यों में 5 दोहों के बाद 1 चौपाई का प्रयोग होता है । अन्य अरबी, फारसी, उर्दू छंदों का प्रयोग नहीं होता है ।
4. अलंकार : उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, समासोक्ति, अन्योक्ति का प्रयोग किया गया है ।
5. लोक कथाओं का प्रयोग : प्राय: भारतीय लोक कथाओं का वर्णन किया गया है ।
6. प्रतीकों का प्रयोग : प्रतीकों का भरपूर मात्रा में प्रयोग किया गया है । इसी इश्क मजाजी से इश्क हकीकी की कथा कहने में इनके काव्य को प्रतीकात्मक काव्य बना दिया है ।
कुल मिलाकर सूफी काव्य परम्परा जीवंत परम्परा रही है और भारत की जनता को सामासिक संस्कृति के पथ पर चलाया है । सूफी काव्य में मुख्यत: मुस्लिम इस्लामी एकेश्वरवाद को मानते थे । उन्होने नव-प्लेटोवाद के तथा हिंदुओं के अह्म ब्रह्मास्मि को आधार बनाकर अन-अल-हक की घोषणा की जिसका अर्थ है मैं ही खुदा हूँ । इससे दोनो धर्मों के मध्य संवाद का द्वार खोल दिया और यह सूफी काव्यधारा के रूप में सामने आ गया । प्रारम्भ में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा सूफी काव्य शैली मसनवी शैली है जिसमें रचनाकार आरम्भ में ईश्वर की स्तुति, समकालीन शासकों का उल्लेख, पूरी रचना का एक ही छ्न्द में रचकर (बिना सर्गों और विभागों के) मसनवी शैली की भाँति है । परन्तु बाद में गणपतिचन्द्र गुप्त आदि विद्वानों ने इस कल्पना का खंडन किया और सिद्ध किया कि प्रेमोख्यान परम्परा के कुल 53 में से 36 व पहले 11 में 8 कवि हिंदु थे । इस आधार पर यह शैली भी भारतीय शैली है । जहाँ तक विषय का प्रश्न है तो भारतीय परम्परा में भी ढेरों प्रेमोख्यान भरे पड़े हैं, जैसे उषा-अनिरूद्ध, नल-दमयंति, भीम-हिडिम्बा, उर्वशी-पुरूरवा और यम-यक्षिणी आदि । इनमें भी नायको का विरह नायिकाओं से अधिक रहा है । जैसे उर्वशी पुरूरवा और यम यक्षिणी के संदर्भ में । यह सूफी प्रेम पद्धति नहीं है । बल्कि भारतीय है ।
पदमावत का कथासार : पदमावत जायसी रचित एक श्रेष्ठ काव्य है । इसकी शुरूआत में सिंहलद्वीप के राजा गंधर्वसेन और रानी चम्पावती की पुत्री पदमावती के जन्म से उसके युवा होने तक की अवस्था का वर्णन किया जाता है तथा खुदा के सौन्दर्य को पदमावती के प्रतीक से बखूबी चित्रित किया गया है । इसमें पदमावती के घनिष्ट मित्र के रूप में एक शुक ‘हीरामन’ को दिखाया गया है जिससे पदमावती अपने मन की हर बात कहती है तथा हीरामन उसे सही सलाह देता है । पदमावती युवा होने के बाद विवाह के लिए इच्छुक है जिसके लिए हीरामन कहता है सही समय का इन्तजार करो । गंधर्वसेन को लगता है हीरामन उसकी पुत्री को बिगाड़ रहा है और वह हीरामन को मरवाने का आदेश देता है । हीरामन वहाँ से भाग जाता है और एक बहेलिए के द्वारा पकड़ लिया जाता है । बहेलिए से एक गरीब ब्राह्मण उसे चन्द रूपये में खरीदकर चित्तौड़गढ़ के राजा रत्नसेन को बेच देता है । जब रत्नसेन की पत्नी नागमती हीरामन से अपनी सुंदरता की तारीफ सुनना चाहती है तो वह उसे पदमावती के अनिद्य सुंदरता के बारे में बताता है । नागमती क्रोध से अपने पति के छिन जाने के डर से उसे मरवाने का आदेश देती है परंतु रत्नसेन की धाय हीरामन को मारने के बजाय छिपा देती है । जब रत्नसेन उसे खोजता है तो धाय उसे रत्नसेन को सौंप देती है । हीरामन पदमावती का नख-शिख श्रंगार वर्णन करता है जिसे सुनकर रत्नसेन मूर्च्छावस्था में चला जाता है । जब उसे वैद्य उसे होश में लाते हैं तो वह कहता है ‘मैं तो अमरपुर में था आप लोगों ने मुझे मरनपुर में वापस बुला लिया है ।‘
उसके उपरांत वह जोगी का वेश धारण कर हीरामन और सोलह सौ अन्य युवकों के साथ सिंहलद्वीप जाता है । हीरामन पदमावती से मिलता है और उसे रत्नसेन के विषय में बताता है । पदमावती उसकी बातें सुन अपनी सहेलियों के साथ बसंत पंचमी के दिन मंदिर जाती है जहाँ रत्नसेन पदमावती को देखकर मूर्च्छित हो जाता है । जिस पर पदमावती कुछ रूष्ट होकर उसके ह्र्दय पर चंदन से लिख जाती है कि ‘तुम्हे भिक्षा मांगनी भी नहीं आती ।‘ जब उसे होश आता है तो पदमावती को अपने सामने ना पाकर पश्चाताप के कारण आत्मदाह की चेष्टा करता है । लेकिन शंकर-पार्वती उसके समक्ष उपस्थित होते हैं और उसे पदमावती को प्राप्त करने का तरीका बताते हैं एवं एक सिद्धि-गुटका देते हैं ।
परन्तु रत्नसेन धैर्य ना धारण कर सीधे पदमावती के दुर्ग पर चढ़ाई करता है । यह देखकर गंधर्वसेन उसे बंदी बना लेता है और उसे फांसी की सजा सुनाता है । उस समय भगवान शिव पुनः उपस्थित होकर राजा गंधर्वसेन को रत्नसेन की वास्ताविकता बताते हैं । जिसके बाद रत्नसेन और पदमावती का विवाह हो जाता है । विवाह के बाद षटऋतु वर्णन के द्वारा संयोग श्रंगार की प्रस्तुति की गई है । इसी समय नागमती के विरह का वर्णन किया जाता है जिसे एक पक्षी सुनकर सिंहलद्वीप में आकर रत्नसेन को सूचना देता है । जिसके पश्चात वह पदमावती के साथ पुनः चित्तौड़ पहुँचता है । जहाँ पदमावती और नागमती के मध्य द्वेष उत्पन्न होता है जिसे रत्नसेन शांत कराता है । एक वर्ष पश्चात दोनो को कँवलसेन और नागसेन नामक पुत्र होते हैं ।
पदमावती अपने साथ राघवचेतन नाम के एक व्यक्ति लेकर आयी थी । वह अत्यंत दुष्ट और चालाक व्यक्ति है जिसके एक द्यूत के बारे में रत्नसेन को पता चलता है तो वह उसे राज्य से निकाल देता है । राघवचेतन रत्नसेन से बदला लेने के लिए दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन के पास जाता है और पदमावती के सौंदर्य का नख-शिख वर्णन करता है जिसे सुनकर अलाउद्दीन बेहोश हो जाता है । वह पदमावती को पाने के लिए रत्नसेन से बारह वर्षों तक युद्ध करता है पर हार-जीत संभव न हो पाने पर दोनो के मध्य सन्धि होती है । रत्नसेन संधि उपरांत अलाउद्दीन को भोजन पर बुलाता है । उसी दौरान वह पदमावती के प्रतिविम्ब को दर्पण में देख बेहोश हो जाता है । जब रत्नसेन उसे छोड़ने के लिए अपने दुर्ग से बाहर आता है तो अलाउद्दीन उसे बंदी बना दिल्ली ले जाता है और पदमावती को प्राप्त करने के लिए दूती को उसके पास भेजता है पर पदमावती उसे वापस भेज देती है, इसी समय देवपाल नामक राजा भी पदमावती को प्रभावित करने के लिए दूती भेजता है पर पदमावती उसकी दूती को दण्डित कर भेज देती है ।
पदमावती रत्नसेन को बचाने के लिए कई सामंतों से आग्रह करती है । अततः गोरा-बादल तैयार होते हैं और वर्षा उपरांत वे सोलह सौ पालकियाँ (जिनमें योद्धा बैठे रहते हैं ) तथा एक राज पालकी (जिसमें एक लोहार बैठता है) को दिल्ली ले जाते हैं और अलाउद्दीन से कहते हैं कि पदमावती आ गई हैं किंतु वह आपकी होने से पूर्व रत्नसेन से मिलना चाहती हैं तथा उसे दुर्ग की चाबियां सौंपना चाहती हैं । अलाउद्दीन इसके लिए तैयार हो जाते हैं तथा गोरा-बादल रत्नसेन को बचाने में सफल हो जाते हैं । रत्नसेन चित्तौड़ पहुँचता है जहाँ पदमावती देवपाल का प्रसंग रत्नसेन को बताती है । जिससे क्रोध में आकर रत्नसेन देवपाल से युद्ध करता है । युद्ध में रत्नसेन की विजय होती है किंतु अत्याधिक चोट लगने के कारण उसकी मृत्यु हो जाती है । उधर अलाउद्दीन रत्नसेन को पकड़ने के लिए चित्तौड़ की ओर बढ़ता है किंतु उसके पहुँचने के पूर्व ही नागमती और पदमावती रत्नसेन की लाश के साथ सती हो जाती है और अलाउद्दीन के हाथ पदमावती की राख ही लगती है ।
कुतुबन : ये चिश्ती वंश के शेख बुरहान के शिष्य थे और जौनपुर के बादशाह हुसैनशाह के आश्रित थे, अत: इनका समय विक्रम सोलहवीं शताब्दी का मध्यभाग (सन 1493) था । इन्होने ‘मृगावती’ नाम की एक कहानी चौपाई दोहे के क्रम से सन 909 हिजरी सन 1500 ई. में लिखी जिसमें चंद्रनगर के राजा गणपतिदेव के राजकुमार और कंचनपुर के राजा रूपमुरारी की कन्या मृगावती की प्रेम कथा का वर्णन है । इस कहानी के द्वारा कवि ने प्रेममार्ग के त्याग और कष्ट का निरूपण करके साधक के भगवत्प्रेम का स्वरूप दिखाया है । बीच बीच में सूफियों की शैली पर बड़े सुंदर रहस्यमय आध्यात्मिक आभास है ।
मंझन : इनके सम्बंध में कुछ भी ज्ञात नही है । केवल इनकी रची ‘मधुमालती’ की एक खंडित प्रति मिली है, जिसमें इनकी कोमल कल्पना और स्निग्ध सहृदयता का पता चलता है । मंझन ने सन 1545 ई. में ‘मधुमालती’ की रचना की । मृगावती के समान मधुमालती में भी पाँच चौपाइयों के उपरांत दोहे का क्रम रखा गया । पर मृगावती की अपेक्षा इसकी कल्पना भी विशद है और वर्णन भी अधिक विस्तृत और ह्र्दयग्राही है । आध्यात्मिक प्रेम भाव की व्यंजना के लिए प्र्कृतियों के भी अधिक दृश्यों का समावेश मंझन ने किया है ।
ये जायसी के परवर्ती थे । मधुमालती में नायक को अप्सराएँ उड़ाकर मधुमालती की चित्रसारी में पहुँचा देती हैं और वहीं नायक नायिका को देखता है । इसमें मनोहर और मधुमालती की प्रेमकथा के समानांतर प्रेमा और ताराचंद की भी प्रेमकथा चलती है । इसमें प्रेम का बहुत उच्च आदर्श सामने रखा गया है । सूफी काव्यों में नायक की प्रायः दो पत्नियाँ होती हैं, किंतु इसमें मनोहर अपने द्वारा उपकृत प्रेमा से बहन का सम्बध स्थापित करता है । इसमे जन्म-जन्मांतर के बीच प्रेम की अखंडता प्रकट की गई है । इस दृष्टि से इसमें भारतीय पुनर्जन्मवाद की बात कही गयी है । इस्लाम पुनर्जन्मवाद नहीं मानता । लोक के वर्णन द्वारा अलौकिक सत्ता का संकेत सभी सूफी काव्यों के समान इसमें भी पाया जाता है ।
उसमान : ये जहाँगीर के समय में वर्तमान थे और गाजीपुर के रहनेवाले थे । इनके पिता का नाम शेख हुसैन था और ये पाँच भाई थे । ये शाह निजामुद्दीन चिश्ती की शिष्य परम्परा में हाजीबाबा के शिष्य थे । उसमान ने सन 1613 ई. में ‘चित्रावली’ नाम की पुस्तक लिखी । पुस्तक के आरंभ में कवि ने स्तुति के उपरांत पैगंबर और चार खलीफों की बादशाह जहाँगीर की तथा शाह निजामुद्दीन और हाजीबाबा की प्रशंसा लिखी है ।
कवि ने ‘योगी ढ़ूढ़न खंड’ में काबुल, बदख्शाँ खुरासान, रूस, साम, मिश्र, इस्ताबोल, गुजरात, सिंहल्द्वीप आदि अनेक देशों का उल्लेख किया है । सबसे विलक्षण बात है जोगियों का अँगरेजों के द्वीप में पहुँचना ।
वलंदप देखा अँगरेजा । तहाँ जाइ जेहि कठिन करेजा ॥
ऊँच नीच धन संपति हेरा । मद बराह भोजन जिन्ह केरा ॥
कवि ने इस रचना में जायसी का पूरा अनुकरण किया है । जो जो विषय जायसी ने अपनी पुस्तक में रखे हैं उस विषयों पर उसमान ने भी कुछ कहा है कहीं-कहीं तो शब्द और वाक्यविन्यास भी वही है पर विशेषता यह है कि कहानी बिल्कुल कवि की कल्पित है ।
शेख नवी :
ये जौनपुर जिले में दोसपुर के पास मऊ नामक स्थान के रहने वाले थे और सन 1619 में जहाँगीर के समय में वर्तमान थे । इन्होने ‘ज्ञानदीप’ नामक एक आख्यान काव्य लिखा जिसमें राजा ज्ञानदीप और रानी देवजानी की कथा है ।
कासिमशाह :
ये दरियाबाद (बाराबंकी) के रहने वाले थे और सन 1731 के लगभग वर्तमान थे । इन्होने ‘हंस जवाहिर’ नाम की कहानी लिखी, जिसमें राजा हंस और रानी जवाहिर की कथा है । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार इनकी रचना बहुत निम्न कोटि की है इन्होने जगह-जगह जायसी की पदावली तक ली है पर प्रौढ़ता नहीं है ।
नूर मुहम्मद :
ये दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह के समय मे थे और ‘सबरहद’ नामक स्थान के रहने वाले थे जो जौनपुर जिले में जौनपुर आजमगढ़ की सरहद पर है पीछे सबरहद से ये अपनी ससुराल भादो (आजमगढ़) चले गये । इनके श्वसुर शमसुद्दीन को और कोई वारिस न था इससे वे ससुराल ही में रहने लगे ।
नूर मुहम्मद फारसी के अच्छे आलिम थे और इनका हिंदी काव्यभाषा का भी ज्ञान था और अब सूफी कवियों से अधिक था । फारसी में इन्होने एक दीवान के अतरिक्त ‘रौजतुल हकायक’ इत्यादि बहुत सी किताबें लिखी थी जो असावधानी के कारण नष्ट हो गई ।
इन्होने सन 1744 में ‘इंद्रावती’ नामक एक सुंदर आख्यान काव्य लिखा जिसमें कालिंजर के राजकुमार राजकुवँर और आगमपुर की राजकुमारी इंद्रावती की प्रेमकहानी है ।
इनका एक और ग्रंथ फारसी अक्षरों में लिखा मिला है जिसका नाम है ‘अनुराग बाँसुरी’ यह पुस्तक कई दृष्टियों से विलक्षण है । पहली बात तो इसकी भाषा सूफी रचनाओं से बहुत अधिक संस्कृतगर्भित है, दूसरी बात है हिंदी भाषा के प्रति मुसलमानों का भाव ।
मुल्ला दाउद :
इसके अतिरिक्त प्रेमोख्यान काव्य की प्रमुख कृतियों में मुल्ला दाउद कृत ‘चान्दायन’ (1369) नायक और चन्दा की प्रेम कथा प्रमुख है ।
संक्षेप मेंं हम यह कह सकते हैं कि इस शाखा के कवि किसी मतवाद में नहीं बँधे, उनका प्रेम स्वच्छंद था।इस शाखा की कविता में भारतीय भक्ति पद्धति और सूफी इश्क-हकीकी का मिश्रण मिलता है। हम कह सकते हैं कि प्रेमाश्रयी काव्यधारा के संत कवियों ने ईश्वर और जीव के प्रेम तत्वों को रचनाओं मेंं रखा। कई प्रेमगाथाएं फारसी की मसनवियों की शैली पर रची गईं। खंडन-मंडन में न पड़कर इन कवियों ने लौकिक प्रेम के माध्यम से ईश्वरीय प्रेम का वर्णन किया है।
संर्दभ-
1. हिंदी साहित्य का इतिहास, संपादक डा. नगेंद्र, डा. हरदयाल
2. हिंदी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल
3.. हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली तीन, हिंदी साहित्य का इतिहास
रश्मि संजय श्रीवास्तव
‘रश्मि लहर’
लखनऊ, उ.प्र
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