प्रीत प्रेम की
प्रीत प्रेम की
प्यार का अर्थात समुद्र था पास तुम्हारे
पर तुम ना समझ पाए कभी
उसके हृदय द्रवित उद्गारों को
मधुभाषा मृदुल प्यार की
उसके आहरित नैनों के जादू को
प्यार की मीठी-मीठी गंध को
उसके मन की उत्साह प्रीत को
दिल में समेटे स्नेह की संपूर्णता को
तुम बहते रहे नदियों की धारा के साथ अथाह प्यार की गहराई तुम पहचान ना पाए
ना रसहीन हृदय तुम थे
ना पत्थर जैसा तुम्हारा दिल था
फिर भी न जाने
क्यों तुम उस प्रीत को समझ ना पाए
तुम तो थे मंजे हुए नाविक
हर लहर पर मचलते रहे
फिर भी न जाने क्यों
तुम लहरों के दिल के शोर को समझ ना पाए
तुम तो समझते थे हर वसंत का जादू
हर प्रेम प्रीत की गंध तुम पहचानते थे फिर भी न जाने क्यों
तुम उलझे रहे कांटो में
प्रेम पुष्प तेरे चारों तरफ मंडरा रहा था
हर भाषा से तुम परिचित थे
प्रेम अधरों से पहचानते थे तुम
फिर भी न जाने क्यूँ
जगत की झंझाओं में उलझे रहे
प्रेम की प्रीत की डोर तेरे द्वार पर थी
मगर तुम कनक्खियों से इसे झांकते रह