प्रलोभन का जाल…
प्रलोभन का जाल
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थोड़ी-थोड़ी जमीन खरीद लो,
ये धरा नहीं बिकने वाली ।
प्रलोभन देकर अश्क खरीद लो,
ज़मीर नहीं बिकने वाली।
सोया ज़मीर अभी जागा है ,
ये आग नहीं बुझने वाली ।
वर्षों से जो सुषुप्त पड़ी थी,
ये जोश नहीं थमने वाली ।
डाकुओं की एक नई विधा है,
प्रलोभन देकर मौके पे बुलाता।
फिर जगह सुनसान देखकर ,
पीछे से खंजर है चुभोता ।
रत्ती-रत्ती जागीर थमाकर ,
छला था कोई सदियों से ।
प्रलोभन के ही जाल में फंसकर,
गुलाम वतन था सदियों से।
मित्रता नहीं प्रलोभन था वो,रिश्ता नहीं बेबसी थी वो,
पूछ लेते ज़मीर से अपना उस दिन।
ऐसे ही नहीं चलकर आया था,
भारत ने जो देखा दुर्दिन ।
प्रलोभन देकर जयचंद बनाया ,
झूठे रिश्तों में सबको उलझाया।
बहू-बेटियों को बेबस बनाकर ,
धर्म परिवर्तन भी,जो उसने कराया।
वंशवादं की पौध रोपकर ,
रखवाली करते अपने घर द्वार ।
फिर भाई-भाई सिर फुटव्वल होता ,
जनता खुद करे अपना उद्धार ।
भूल गए यदि अभी अतीत को ,
संभलेगा नहीं फिर, कभी भविष्य जो।
वक्त का पहिया, रुकता नहीं है,
इतिहास कभी बदलता ही नहीं है ।
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – १९ /०१ / २०२२
माघ, कृष्णपक्ष,द्वितीया
२०७८, विक्रम सम्वत,बुधवार
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