प्रयास
जाने कितनी बार प्रयास किया मैंने,
इस जीवन को मुठ्ठी में बंद कर दूं ।
या घर की किसी अलमारी में बंद कर दूं ।
किसी गुब्बारे में बंद कर घर के
किसी कोने में टांग दूं ।
या किसी बोतल में बंद कर ,
अपनी रसोई में छुपा दूं ।
मगर मेरे सब प्रयास विफल हो गए ।
सहसा अचानक मुझे ठोकर लगते
ही मैं गिर गई ।
और मेरा ही जीवन ,टूट कर गिर कर ,
बिखर कर,मेरे हाथों से छूट गया ।
और उड़ता हुआ बंधन मुक्त होकर,
हवा हो गया ।
और मैं अब अपना शव लिए,
स्वयं आई हूं अपने अंतिम संस्कार हेतु ।
हरिद्वार में गंगा नदी के तट पर ।