प्रकृति
प्रकृति का क्रोध शांत कछारों को झकझोर देता है
एक तेज आंधी!आवेग!या कहर जिससे फिर कोई अछूता नहीं रह पाता।गौधुली में वो शांत थी पर जाने क्यों उसने रोद्र रूप धारण कर लिया तदोपरांत उसकी शांत छवि कहर बरपाती दिखी।हर ओर तहस-नहस!सारे खिड़कियां,दरवाजे चीखने चिल्लाने लगे जैसे प्रकृति की भृकुटि सध गयी हो और भय से हर और त्राहि-त्राहि हो रही हो।देर शाम तक प्रकृति के हृदय की ज्वाला यौंही धधकती रही वो तेज पवन संग धूल बिखरेती रही।पर जाने क्यों लगता है प्रकृति में मातृ हृदय है जो क्षणभर बाद शांत हो उठता है।आज सुबह फिर उसे पूर्ववत शांत और शीतल पाया जैसे उसमें क्रोध का संचार हुआ ही न था।
काश मनुष्य भी ऐसी प्रवृति के हो जाए जो प्रकृति की भांति समष्टि को समझे पर अब सब व्यष्टिनिष्ठ है,स्वार्थी व कपटी।काश!कोई एक तो ऐसा चेहरा मिल जाए जो अपने कर्म से गुणों से मुझे आकृष्ट करे पर शायद मैं स्वयं भी नहीं।केवल स्टेटस पर चेहरा बदल लेने से दुर्गुण दूर नहीं होते चूंकि कर्म ही दिखता है चेहरा नहीं…
मनोज शर्मा