प्रकृति
जिन पांच तत्वों से बने हम उनकी ही बेकद्री करते हैं,
कहने को तो है बहुत समझदार हम पर बेबकुफी बड़ी करते हैं,
जिस विकास की खातिर हम प्रकृति को हानि पहुंचाते हैं,
उसी विकास से दूर हम सुकून के लिए प्रकृति की गोद ढूंढ़ते हैं,
जिस प्रकृति को पूजते हम व्रत अनुष्ठान के कामों में,
क्यूं उसी प्रकृति को पैरों की धूल समझ हम रोंदते हैं,
पूरे जीवन चक्र में जो इस जहां का अहम हिस्सा बनती है,
उसी को अपने अहम की खातिर हम दर्द बेहिसाब देते हैं,
नीला आसमां घने जंगल और वादियों को टीवी पर देख जो खुश बड़े होते हैं,
प्रकृति की उसी सुंदरता को सहेजने की अपेक्षा हम बर्बाद कर देते हैं,
चांद की चांदनी में प्रकृति की तस्वीर को जो दिलों और कैमरों में कैद करते हैं,
उसी तस्वीरों को हम अपनी तृष्णा के खातिर बर्बाद करते हैं,
इतनी बेकद्री करने पर भी हम इससे सिर्फ अच्छे की उम्मीद करते हैं,
लेती बदला जब वो हमसे तब भी खुद को नहीं उसी को दोष देते हैं,
हर आपदा प्रकृति की चेतावनी हमारे लिए लाती है,
शायद अब संभल जाए हम वो यही उम्मीद करती हैं,
उम्मीद टूटती हर बार उसकी जब उसके अंश को ही हम तड़पाते हैं,
जानवर हो या हो वो जंगल सिर्फ दोहन करना ही तो हम जानते हैं,
अधिकार जताते उस पर ऐसे जैसे अपने हर फ़र्ज़ को हम शिद्दत से निभाते हैं,
सींचते हम एक पौधे को भी नहीं पर उससे ठंडी छाव की आस रखते हैं