प्रकृति
स्त्रीलिंग शब्द जहाँ जहाँ भी आया
उसको नष्ट करने में ही सबने चैन पाया ,
प्रकृति – धरा तक को नही छोड़ा
उसकी हर एक संपदा को तोड़ा ,
पता है सबको की ये जीवन का संचार है
इस स्त्रीलिंग के बिना जीना दुस्वार है ,
फिर भी सभी इसी पर करते वार हैं
इनकी धृष्टता का नही कोई पार है ,
“आओ चलो थोड़े पेड़ और काटते हैं
इन नदियों में घुस कर घर बना डालते हैं ,
अरे ! हमने विज्ञान में तरक़्क़ी की है
यूँहीं नही बेकार में फाँका मस्ती की है ,
नये नये अविष्कार हम ढूंढ रहे है
सबको प्रमाण देंगे ऐसे ही नही मूढ़ रहे हैं ,”
इन सब नासमझों की मती गई है मारी
प्रकृति पड़ गई हम सब पर ही भारी ,
तुमने सूखी- बाँझ समझ लिया उसी नदी को
सिंचा जिसने देकर अपनी हर एक – एक बूँद को ,
याद रखना नदी वापस पलट कर आती है
काली बन विकराल रूप दिखाती है ,
हमारा ग़ुरुर क्षण में भस्म कर
पल में हम सबको लिल कर ,
हर बार हमको चेताती है
रक्तदंतिका बन दिखलाती है ,
हमने जिन पहाड़ों की हरियाली
बड़ी निर्दयता से काट डाली ,
अब जब भी बादल गरजते है
बूंदें नही वो पहाड़ हम पर बरसते हैं ,
प्रकृति को मत चुनौती दो
उसे बस अपनी मनौती दो ,
स्वीकार करती है वो हर चुनौती
टूट पड़ती है बन कर विपत्ति ,
मनौती माँगों हे माँ हे जननी
हमारी पीड़ा तुमको है हरनी ,
अंहकार में हमने जो की है नादानी
उसकी कीमत हमको ही है चुकानी ,
कभी नही हम अंहकार करेगें
अपनी अज्ञानता स्वीकार करेगें ,
जितना दोहन किया तुम्हारा
अब फर्ज बनता है हमारा ,
हम सब अपनी गलती सुधारे़
तुमको तुम्हारी संपदा से सवारें ,
तुम्हारी दौलत का कर्ज है उपर हमारे
कर सहित उसको अब तुम पर वारें ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 01/06/2020 )