प्रकृति
हे हिमराज !
इतना विशाल हृदय कैसे
बस एक अवस्था में अडिग
क्या कभी नही पीड़ा होती
धूप की किरणों से जो बर्फ पिघलती है
वह बर्फ पिघलती ,
या तुम रोते हो ?
हे नभ ! आसमान में
जब बादल घिर घिर आते हैं,
चीर वक्ष उनका जो बूँदे गिरती हैं
वो जलद अश्रु ,
या तुम रोते हो ?
हे रत्नाकर !
जो वेग तरंगों के उठते हैं
हो आवेश में हर सीमा को तोड़
बाढ़ आ जाती है ।
तरंगें मचलीं ,
या तुम कुंठित होते हो ?
हे धैर्य की जननी!
गतिशील अवस्था में भी
तुम हमको पोषित करती हो
लेकिन , प्रचण्ड रूप लेकर
जब झकझोर कर रख देती हो स्वयं को
वो विपदा होती है
या तुम द्रवित होती हो ?
निहारिका सिंह