प्रकृति की गोद
प्रकृति की गोद
पूर्व काल से है उदघोषित,
कभी न करना पर्यावरण प्रदूषित ।
वेद शास्त्र ऋचाएँ किया बखान,
समझ वृक्ष पुत्र, हो कल्याण ।
हर एक वृक्ष है जीवन दाता,
शदियों से कहा वह भाग्यविधाता ।
स्वस्थ प्रकृति की चंचल धारा,
सिचे जग को बन उजियारा ।
सच पूछो जीवन में प्रगति का आना,
है कहीं सत्य समृद्ध निशाना ।
प्रमुदित हो न कर प्रकृति खंड,
प्रगति ही दे दे भीषण दंड ।
इसका सौंदर्य है बिष का हाला,
भूतल गिरता जो है अति पीने वाला ।
प्रगति सौंदर्य से न लिपटो बंधु,
यह काल-विक्राल का मुख है सिंधु।
पर्यावरण नेह जब-जब टूटा बंधु,
हुआ प्रवाह-प्रलय का विलाप रे धु- धु।
धरती से जीवन का अंत हुआ,
जाने कितने हिमयुग उतंग हुआ ।
तड़प तड़प कर निज सम्मुख,
निज जन का ही अंत हुआ ।
हमसब प्रकृति के ही उपादान,
थोड़ा भी कर उसका सम्मान ।
वृक्ष कर्तन पर जा छा बन अवरोध,
पले हम सदा प्रकृति की गोद
धरती माता आज कहे पुकार,
रोप वृक्ष कर जीवन साकार ।
चल मिटा, धरा का भाव कलुषित,
थल-जल-नभ मिल गाए राग हर्षित ।
पूर्व काल से है उदघोषित,
कभी न करना पर्यावरण प्रदूषित ।
-उमा झा