प्यार
कोई अब यहाँ प्यार करता कहाँ है?
कोई प्यार में ऐसे मरता कहाँ है?
कहाँ हीर-राँझा, कहाँ लैला-मजनूँ;
अब ऐसा फ़साना भी मिलता कहाँ है?
शरीर और स्वारथ पे दुनिया टिकी है,
कोई ढाई आखर भी पढ़ता कहाँ है?
फ़क़त चेहरे पर एक चेहरा बिछा है,
कोई अब खुदा से भी डरता कहाँ है?
निभायी बहुत प्रीति की रीति ‘रोली’,
मगर दूसरा हामी भरता कहाँ है?