प्यारी रात
सुबह का जोगी
गेरुआ वस्त्र पहने
लेकर अनूठा इकतारा
सूर्य अराधना मे रत।
प्रचंड तेजस्वी
तपती दुपहरी
अपने तप के तेज से
करती व्याकुल इंद्रासन।
सौम्य साध्वी संध्या
बिखेर कर रोली
करती विहग-गीतों से
मुखर अपनी रंगोली।
चुपके से आती है प्यारी रात
सबको सुलाती दे थपकी
सबका श्रम हरकर
उन में नव जीवन भरती।
उसकी कालिमा
उपेक्षणीय नहीं है
ग्रहणीय है
प्रशंसनीय है।
प्रतिभा आर्य
चेतन एनक्लेव
अलवर (राजस्थान)