पुरूष क्यूँ बनना मुझे?
हाँ, मैं स्त्री हूँ,
नहीं बनना मुझे पुरूष !
क्यूँ बनना है?
सिर्फ इसलिए
कि वे मुझे स्वयं से श्रेष्ठ जताने का
प्रयत्न करते हैं,
सिर्फ इसलिए
कि वे मेरी शक्ति और सम्पदा से
अपरिचित है
उस पाश्चात्य शिक्षा के पक्षधर,
जहाँ धन की दौड़ है
बस होड़ ही होड है
जहाँ बुद्धि के साथ
हृदय नहीं धड़कता,
जहाँ अपनों का संसार नही पनपता,
मैं तुम के भेद में
रम जाता है जीवन,
अन्त समय बस बच रहता है क्रन्दन।
मानव से कब मशीन बन
दिखते हैं,
पर अन्दर ज्वालामुखी के लावे से फूटते हैं,,
संवेदना की डोरी की तलाश में
भटकता मन,
तन में रमने की बेकार-सी कोशिश,,,
स्व की शाश्वत सम्पति भूल,
कौडियों की नापते धूल।
नहीं कहती धन की जरूरत नहीं,
पर रेस का धोडा बन,
चोट खाने की जरूरत भी नहीं,
जहाँ बुद्धि और हृदय का सामंजस्य ,,
वहीं है जीवन का सशक्त सम्बल,,
खडी हूँ मैं नींव का पत्थर बन ,,
मैं स्त्री हूँ
हाँ, मैं स्त्री हूँ,
नहीं बनना मुझे पुरूष !
क्यूँ बनना है?
इन्दु