“पिता के आदर्श एवं संस्कारों को रखा जीवित”
शुरू से ही अशोक एक अलग ही सोच रखते थे, वह खुद तो एक फैक्ट्री में काम करते थे पर अपने बच्चों की ज़िंदगी संवारने के लिए हर अच्छा प्रयास करने को तैयार रहते थे। “वे चाहते थे कि उनके बच्चे किसी पर मोहताज नहीं रहें।”
वह बहुत प्रयासरत रहते कि मैं अपने परिवार को सभी सुविधाएँ उपलब्ध करा सकूँ। सभी रिश्तेदार भी समीप ही रहते थे, लेकिन अपने परिवार में व्यस्त। “अशोक की पत्नी सुरेखा भी एक अच्छी कंपनी में नौकरी करती थी ताकि वह अशोक को परिवार की ज़रूरतों को पूर्ण करने में सहयोग कर सके और बच्चों को अच्छे संस्कार दे सके।”
अशोक के पिताजी तो थे नहीं वे पहले ही दुनिया से चल बसे थे और माँ तब गाँव में अपनी बहन के साथ ही रहती थी, लेकिन बाद-बाद में गुज़र-बसर नहीं होने के कारण वे अपने दोनों भाईयों के साथ रहने लगीं। दोनों भाई मुंबई में रहते थे, पर उन्होंने बहनों के साथ-साथ भांजे-भांजियों की परवरिश बखूबी करते हुए स्वयं की पारिवारिक ज़िम्मेदारियों को भी निभाने में किसी तरह की कमतरता नहीं की। ”
जैसे-जैसे समय गुजरता है, ठीक वैसे-वैसे आदमी वर्तमान को देखते हुए भविष्य की सोचने लगता है, अशोक भी यूँ ही सोचते कि उनके मामा ने उनके साथ-साथ अन्य भाई-बहिनों की परवरिश भी की और मामी ने भी साथ निभाया, जबकि उस समय पर मुंबई जैसे स्थान पर एक कमरे में भी ज़िंदगानी बसर होती थी, पर लोगों के दिल बहुत बड़े हुआ करते थे। भले ही घर में जगह कम हो दोस्तों, पर दिल में जगह ज़रूर होनी चाहिए, तभी तो रिश्ते निभाए जा सकेंगे आसानी से।
इन्हीं सब स्वयं की पुरानी अनमोल यादों के साथ दूर की सोच रखने वाले अशोक, एक ज़िम्मेदार पिता होने के नाते अपने बच्चों को ऐसी नैतिक शिक्षा उपलब्ध कराना चाहते थे कि वक्त आने पर वे आवश्यक शिक्षा प्राप्त करने अपने दम पर विदेश भी जा सकें। और बस इसी कोशिश में अशोक अपनी फैक्ट्री में नित-नये वैज्ञानिक प्रयोग करने में लगे रहते, क्योंकि उनको यह लगता कि आने वाले समय में कभी ऐसी अपरिहार्य स्थिति आती भी है तब मामा जैसे कोई हितकारी बच्चों को मिल पाएँगे कि नहीं? “मेरे जीते जी कुछ ऐसा काम करूँ कि परिवार की स्थिति समृद्ध हो सके।”
उनकी एक बेटी प्रेरणा व दो बेटे अजय और अक्षय हैं। बच्चे जैसे-जैसे बड़े हो रहे थे, उनके पालन-पोषण में परेशानी आने लगी थी क्योंकि माँ का निवास भी एक जगह स्थायी नहीं होने के कारण उनसे भी बच्चों की परवरिश नियमित रूप से नहीं हो पाती। “पहले बच्चों को समय देकर उनसे वार्तालाप करना, उनके हर छोटे-छोटे कार्यों की प्रशंसा करना व अच्छे व्यवहार पर पुरस्कृत करना, गलतियों की आलोचना न करते हुए सही-गलत समझाना, समय-समय पर बच्चों के प्रश्नों पर उचित सलाह देकर मार्गदर्शन करने के साथ ही समय निकालकर उनके साथ खेलना इत्यादि गतिविधियाँ शामिल थीं, पर जैसे ही उनके फैक्ट्री में कार्यों ही व्यस्तता बढ़ी तब उनका बच्चों से मिलना तक कम हो पाता।”
इसी बीच अशोक फैक्ट्री में एक ऐसे हादसे का शिकार हुए कि जिसकी तो कभी कल्पना ही नहीं थी। कुछ प्रयोग करते-करते एसिड़ अशोक के शरीर पर ढुलकने के कारण चमड़ी जलने से पूरे शरीर पर फफोले हो गए और सुरेखा तो घबरा ही गई थी बिल्कुल। लेकिन नज़दीकी रिश्तेदार के साथ सुरेखा उनको समय पर उपचार हेतु शीघ्र ही बड़े हॉस्पिटल ले गई, जहाँ वे एक महीना भर्ती रहे, पर पूरी तरह स्वस्थ हो गए पूर्ण आत्मविश्वास के साथ, सिर्फ़ सफ़ेद दाग़ रह गए थे शरीर पर, “डॉक्टर ने कहा वक्त के साथ-साथ कम हो जाएँगे।”
सुरेखा पर तो मानो आफ़त ही आन पड़ी थी क्योंकि सासु माँ की भी उम्र हो चली थी, सो वे चाहते हुए भी सुरेखा की सहायता करने में असमर्थ थीं। इस परिस्थिति में उसे नौकरी छोड़ने का फैसला लेना पड़ा था ताकि अशोक की पूर्ण रूप से देखभाल के साथ ही घर-परिवार की जिम्मेदारियों को भी निभा सके। ”
अब अशोक की हालत धीरे-धीरे सुधर रही थी और उसने फैक्ट्री भी जाना शुरू कर दिया था। “सुरेखा को सासुमाँ और समीप के सभी रिश्तेदारों ने ऐसे गंभीर समय में सहायता करने के साथ ही ढांढ़स व हिम्मत बंधाई, जिसकी वजह से इतने बड़े हादसे का वह धैर्य व साहस के साथ सामना कर पाई।”
इस हादसे के बाद अशोक थोड़े चिडचिडे और सख्त स्वभाव के हो गए थे, लेकिन बच्चों का भविष्य उज्जवल बनाने की कोशिश पूर्व की अपेक्षा अधिक प्रबल हो गई थी। उनका सोचना था कि मुसीबत कभी कहकर दस्तक नहीं देती, आज मेरे साथ ऐसा हादसा हुआ, चलो थोड़े में टल गया और सहायता के लिए रिश्तेदारों के हाथ आगे बढ़े। लेकिन वे एक आदर्श पिता के रूप में भूमिका निभाते हुए बच्चों के हौसले बुलंद करना चाहते थे। मान लो उनको आने वाले समय में किसी जोख़िम को उठाना भी पड़े तो उनके कदम कदापि न डगमगाए।
बच्चों की उच्च-स्तरीय पढ़ाई की अधिकता का स्तर दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा था, इस महत्वपूर्ण अवधि में अब अशोक और सुरेखा को उन पर ध्यान केंद्रीत करना ज़रूरी हो गया था। इसलिये अशोक ने प्रेरणा, अजय और अक्षय के भविष्य संवारने के लिये हर आवश्यक कदम उठाने का प्रयास किया और फिर से स्वतंत्र फ्लेट खरीदकर उसमें उनके लिये अध्ययन का एक कमरा आवश्यकतानुसार पृथक रूप से बनाया ताकि वे निरंतर क्रम से अपना अध्ययन विधिवत पूर्ण कर सकें।
प्रेरणा का पढ़ाई की तरफ थोड़ा कम रूझान था, सो किसी तरह उसका ग्रेजुएशन तो हो गया और समीप ही उसे एक कंपनी में गुजारे लायक नौकरी मिल गई। “वह बड़ी थी तीनों में तो अशोक और सुरेखा को अब उसके विवाह की भी चिंता सता रही थी, क्योंकि अब वह सयानी हो गई थी।”
अशोक अपने काम की दिन-रात की मेहनत के साथ ऐसी खोजबीन में रहता कि वह अजय और अक्षय को विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में ऐसा कौन-सा कोर्स कराए, जिसका क्षेत्र ज्यादा विकसित हो। वह दिन पर दिन इतना सख्ती से पेश आ रहा था कि बच्चों को भी पिता का बदलाव महसूस होने लगा, पर वे उसके पीछे का उद्देश्य नहीं जानते थे। “बच्चे भी सोचते पहले तो पिताजी हमें समय देने के साथ ही खेलते भी थे, पर जब से वे हादसे से ग्रसित हुए हैं, गुस्सा अधिक कर रहे हैं।”
अशोक को चमड़ी पर सफेद दाग़ कम करने की दवाइयाँ भी लेनी पड़ रही थी, जो काफी महंगी थीं। जो बेटी की शादी के लिए भी कुछ बचत कर रखी थी, उसमें से खर्च हो चला था, क्योंकि महिने में मिलने वाली तनख्वाह घर खर्च चलाने के लिए कम पड़ने लगी थी। इसी बीच उनकी माँ का देहावसान भी हो गया, अब सुरेखा अकेली हो गई सो उसने भी घर की आर्थिक स्थिति को देखते हुए क्षमतानुसार ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया। “वह भी सोचती कहाँ तो वह पहले अच्छी-खासी नौकरी कर रही थी, पर जीवन में कभी अपरिहार्य विषम स्थितियाँ आ जाती हैं, जब पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के बोझ तले आकस्मिक निर्णय लेना अनिवार्य हो जाता है, जो मानव के हाथ में नहीं रहता।”
अजय और अक्षय में सिर्फ़ एक साल का अंतर था, इसीलिए वर्तमान स्कोप के अनुसार पिता के आदर्शों और संस्कारों का पालन करते हुए दोनों ने ही इंजीनियरिंग पूर्ण करते हुए अलग से तकनीकी कोर्स भी कर लिया ताकि कहीं से भी सम्बंधित रिक्त पद के लिये नियुक्ति के लिए आवेदन भरने का मौका आए तो तुरंत किया जा सके। अब वे इसी क्रम में प्रयासरत थे, पर भारत में उनके कोर्स के अनुसार पद के चयन हेतु विज्ञप्ति ही प्रसारित नहीं हो रही थी और वे इस कोशिश में थे कि पिताजी के रिटायरमेंट के पूर्व कहीं स्थायी नौकरी मिल जाए।
इसी बीच सुरेखा के प्रयास से प्रेरणा का रिश्ता तय हो गया और विवाह की तारीख़ भी निश्चित हो गई। अब तो अशोक और सुरेखा को विवाह के खर्च का थोड़ा तनाव था क्योंकि वे दोनों ही किसी भी रिश्तेदार की सहायता नहीं लेना चाहते थे।
जीवन में हर मानव की सोच का दायरा उसके अनुभव के आधार पर परिवर्तित होता है, अशोक को बेटी के विवाह के साथ बेटों की नौकरी और विवाह की भी उतनी ही फिक्र थी कि मेरे सेवानिवृत्ति के पश्चात जीवन-यापन कैसे होगा? उनकी और सुरेखा की उम्र हो चली थी पर अपने साहस के साथ निर्वाह कर रहे थे और वह भी वर्तमान युग की तकनीकी के साथ। उनके इसी साहस के दम पर बेटों को प्रेरणा के विवाह-पूर्व रेपुटेड़ फर्मों से नौकरी हेतु बुलावे आए, परंतु अमेरिका और कनाड़ा में स्थायी फर्मों के, क्योंकि उस समय भारत में अस्थायी फर्म मौजूद थीं उनमें नौकरी करने से ज़्यादा फायदा नहीं होता और उसकी कोई प्रत्याभूति नहीं थी।
पारिवारिक स्थिति में कभी-कभी ऐसा होता है, क्योंकि सभी चीज़ें उसकी इच्छानुसार हो, यह ज़रूरी तो नहीं, एक तो शिक्षा, नौकरी, विवाह और घर इन सब मामलों में वर्तमान स्थिति के आधार पर निर्णय लेना आवश्यक हो जाता है। जो अजय और अक्षय को लेना पड़ा, वह भी घर से दूर अलग-अलग दिशाओं में।
फर्म से नियुक्ति-पत्र में तुरंत काम पर उपस्थित होने की बात थी तो अजय और अक्षय अपने-अपने काम समझकर एक माह का अवकाश लेकर आए क्योंकि प्रेरणा का विवाह जो धूमधाम से करना था।
अशोक और सुरेखा की आर्थिक स्थिति तो पूर्व की अपेक्षा सुदृढ हो गई, अब उनको पूर्ण विश्वास था कि बेटी का विवाह भी कुशलपूर्वक ही संपन्न हो जाएगा। दामाद का कपडों का व्यापार था, जिससे अच्छा-खासा मुनाफा हो जाता था।
फिर पलक झपकते ही बेटी का विवाह भी बिना किसी रूकावट के संपन्न हो गया और साथ ही अशोक का सेवानिवृत्ति का समय भी निकट आ गया। अब गम सता रहा था सिर्फ़ बेटों के विदेश जाने का, उन्हें लग रहा था कि उन्होंने अपने सुपुत्रों को भारतीय संस्कारों के साथ ढाला है, कहीं विदेश जाकर ग़लत संगति में बेटे बिगड़ जाएँ।
“अजय और अक्षय दोनों ही अपने-अपने काम में निपुण और पिता की आज्ञा का पालन करते हुए हर कार्य को करने की कोशिश करते।”
बेटों के जाने के बाद दामाद ने कहा भी कि आप चाहें तो हमारे साथ ही निवास कर सकते हैं। पर अपने आदर्शों पर चलने वाले अशोक और सुरेखा ने कहा कि हम वर्तमान स्थिति के अनुसार समायोजन कर लेंगे और हो सकता है स्वास्थ्य के मद्देनज़र आपको और बेटी को सिर्फ़ बीच-बीच में सेवा हेतु आना पड़े। लेकिन हम स्वतंत्र रहेंगे और नौकरी के साथ जो मनपसंद इच्छाएँ अधूरी रह गईं हैं, उनको ज़रिया बनाकर जीने की कोशिश तो कर ही सकते हैं न? और वैसे भी बच्चों पर निर्भर नहीं रहना चाहते, न ही उनसे कोई अपेक्षा है जीवन में, “वे सही राह पर चलकर अपने आदर्श और संस्कृति को अपनाते हुए उज्जवल भविष्य की ओर अग्रसर हों, बस इतनी ही उम्मीद है।”
फिर मुंबई में टीवी के चलन के साथ-साथ लैंड-लाईन फ़ोन, मोबाइल, टैबलेट सब उपयोग शुरू हो गए। बेटों की नौकरी सुचारू रूप से जारी थी, परंतु अकेलेपन को दूर करने के लिए इन वैज्ञानिक साधनों का उपयोग भी अशोक और सुरेखा ने आवश्यकतानुसार वक्त के साथ आखिर सीख ही लिया। “अब तो विडि़योकॉल पर बात करते, मानों उन्हें ऐसा महसूस होता कि आमने-सामने बात कर रहे हैं।”
अब अशोक और सुरेखा यही सोचते थे कि जैसा ट्रेंड चल रहा है, सभी जगह लव-मैरिज का कही उनके बेटे भी?
अजय और अक्षय ने प्रारंभ से ही पिता की जद्दोजहद को देखा था, जिस संस्क़ति में उनकी परिवरिश हुई उनका असर तो आएगा ही न? बाकायदा दोनों वक्त निकालकर आए और अशोक और सुरेखा को यह जानकर बेहद खुशी हुई कि वे माता-पिता की मर्ज़ी से ही विवाह करेंगे, सो दोनों के लिए उपयुक्त कन्याओं को चुना गया और लड़की वालों की रजामंदी से दोनों का ही विवाह एक ही मंडप में एक साथ संपन्न कराया गया, जिसका एक अलग ही आनंद उठाया सभी रिश्तेदारों ने। अब सोचने लायक सिर्फ़ एक ही बात थी दूर विदेश में रहने की, मगर नौकरी का सवाल था क्योंकि वह स्थायी फर्में थी। “उनकी योग्यतानुसार नौकरी के साथ उचित रूप से वेतन मिलना भी जीवन की सफलता का प्रमुख आयाम रहता है।”
अशोक और सुरेखा ने बेटे-बहुओं को उनकी रजामंदी से खुशी-खुशी विदा किया, उनकी खुशी इसी में थी कि विवाह उनकी रजामंदी से हुआ।
हर वर्ष बेटे अशोक और सुरेखा से मिलने एक माह के अवकाश पर अवश्य ही आते। अब तो बहुओं को भी वहाँ उनकी योग्यतानुसार नौकरी मिल गई और वे भी एक-एक बेटे की माँ बन गईं। “उनके संस्कार लेकिन पूरी तरह भारतीय पद्धति के अनुसार ही सुनियोजित थे साथ ही भोजन भी भारतीय जायके का ही।”
धीरे-धीरे अशोक का स्वास्थ्य उम्र के साथ-साथ जवाब देने लगा था, पर वे साहस से तकनीकी युग में घर में ही सुरेखा के साथ आसानी से जीवननिर्वाह कर रहे थे। अपने आदर्शों पर ही चलकर और सबका ध्यान रखकर अशोक और सुरेखा ने अपना शरीर दान भी कर रखा था ताकि मरणोपरांत उनकी वजह से किसी को भी परेशानी न होने पाए।
एक दिन अचानक अशोक नींद में ही चल बसे, तुरंत ही अजय आया और माँ के साथ शरीर दान की विधि संपन्न कराते हुए भारतीय परंपरा की विधि भी संक्षिप्त में पूर्ण कराई क्योंकि अक्षय काम की अधिकता के कारण आ नहीं पाया और उसे भी जाना आवश्यक था। शरीर दान का महत्व भी सुरेखा को उस दिन समझ में आया और उसने भी परिस्थिति को स्वीकारा अशोक के साथ प्रारंभ से ही और उन्हीं आदर्शों के सहारे उसने अभी भी अकेले रहने का ही फैसला लिया।
अजय और अक्षय दोनों ही बीच-बीच में माँ को आने को कहते, पर अब तो सुरेखा ने सामाजिक सेवा भी शुरू की थी तो वह छोड़कर भी जा नहीं सकती थी।
एक दिन सुरेखा को जब बहुत ज्यादा अकेलापन सताने लगा तब वे बेटों के पास गई तो उनका रहन-सहन देखकर एकदम आश्चर्यचकित्… और वह अब कभी बेटों के पास और कभी अपने सामाजिक कार्य में व्यस्त रहने लगी। “वह मन ही मन खुश थी कि बेटे विदेश जाकर भी पिता के ही आदर्श और संस्कारों का ही पालन बखूबी कर रहें हैं।”
आजकल के माता-पिता के लिये मेरा सुझाव है कि अपनी सोच परिवर्तनीय रखिएगा, दूर रहकर भी आदर्श संस्कारों का पालन किया जा सकता है।
आरती अयाचित
भोपाल