पिता की छाँव
पिता की छाँव
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अँखियों में अरमाँ संजोए,निर्बल थी काया,
पिता की छाँव कहूँ या बरगद की छाया…
खो गया जब आज मैं ,
अतीत की यादों में ।
बचपन के झरोखों में ,
कैसे जज्बात थे ।
मुश्किल भरे हालातों में ,
जब खाने को मोहताज थे ।
मैं खाया था भरपेट ,
पर उसने न कुछ खाया ।
पिता की छाँव कहूँ या बरगद की छाया…
खिलते हुए बचपन में ,
कभी कोई शिकन न थी ।
पूरी की जाती थी ,
जिद की हर फरमाईश ।
दिन हो या रात हो ,
पूरी होती थी हर ख्वाहिश ।
अँगुली पकड़ कर उन्होंने ,
चलना था सिखलाया ।
पिता की छाँव कहूँ या बरगद की छाया…
मेरे सपनों की उड़ान को ,
पंख दिया था उन्होंने ।
इस दुख भरी नगरी में ,
संस्कारों को उन्होंने सिखलाया ।
मरने की आरजू में ,
जीने का सही मकसद बतलाया ।
पिता की छाँव कहूँ या बरगद की छाया…
लड़ते थे हम सभी ,
झगड़ते थे भाइयों में ।
उनकी उपस्थिति मात्र से ही ,
दूर हो जाते थे सारे गिले-शिकवे ।
क्रोध जब करते थे वो,
रो लेते थे वे अन्तर्मन से ,
पर दिल कभी न दुखाया ।
पिता की छाँव कहूँ या बरगद की छाया…
भूला दिया मैंने उन्हें ,
जवानी जब आया ।
यौवन की दहलीज ने ,
मन को जो भरमाया ।
कैसे कहूँ, किससे कहूँ ,
इस जिन्दगी की माया ।
पिता की छाँव कहूँ या बरगद की छाया…
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )