*पिताजी को मुंडी लिपि आती थी*
पिताजी को मुंडी लिपि आती थी
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वर्ष 1984 में पिताजी ने पूरा बही खाता मुंडी लिपि से देवनागरी लिपि में परिवर्तित किया था। पिताजी श्री राम प्रकाश सर्राफ को मुंडी लिपि खूब आती थी। लिखने का उनका अभ्यास अधिक नहीं था लेकिन पढ़ने की जरूरत उन्हें आमतौर पर रोजाना ही पड़ जाया करती थी।
बही खाते तैयार करने और उन्हें देखकर ग्राहकों को हिसाब बताने का कार्य मुनीम जी (पंडित प्रकाश चंद्र जी) के पास था। वही ग्राहक के आने पर बही खाते को देखकर यह बताते थे कि ग्राहक की तरफ हिसाब किताब कितना है। बही खातों को तैयार करने का काम भी पंडित जी के ही जिम्में था।
दशहरे पर बही खाता बदला जाता था। यह सारा कार्य मुंडी लिपि में ही होता था। पंडित जी दुकान खोलने के आधे-पौन घंटे बाद दुकान पर आ जाते थे तथा जब शाम को दुकान बंद होती थी, उससे एक-डेढ़ घंटे पहले अपने घर चले जाते थे। अगर पंडित जी अनुपस्थित हैं तो मुंडी लिपि में बही खाते को पढ़ने का कार्य पिताजी के ही जिम्में रहता था। वही बता सकते थे कि बही खाते में क्या लिखा है ?
मुंडी लिपि में बहीखाते जब से दुकान शुरू हुई, तब से ही लिखे जा रहे थे । एक बार की बात है जब मैंने पिताजी से कहा कि आपने दिल्ली में जाकर गॉंधी जी की प्रार्थना सभा में एक सोने की अंगूठी खरीदी थी। उस अंगूठी को किसी महिला ने गॉंधी जी को भेंट किया था। गॉंधी जी ने उसे नीलाम किया और पिताजी ने सबसे ज्यादा बोली लगाकर उस अंगूठी को खरीद लिया था । जेब में पैसे कम थे, अतः जितने रुपए थे वह जमा कर दिए। बाकी रुपए रामपुर आने के बाद मनी ऑर्डर कर दिये। मैंने राय दी कि किस तारीख को मनी आर्डर कराया गया है, इसका पता पुराने बही खाते को देखकर लगाया जा सकता है। तब 1947-48 के बहीखातों को पिताजी ने स्वयं काफी परिश्रम करके देखा था। लेकिन मनी ऑर्डर की कोई जानकारी उन खातों में से नहीं निकल पाई। संभवत खर्चे में वह रुपए बही खाते में नहीं डाले गए होंगे। इस घटना से यह तो पता चलता ही है कि बही खातों की खोजबीन करने तथा उन्हें भली प्रकार से पढ़ने का अभ्यास पिताजी को था। यह भला क्यों नहीं होता ? पूरे भारत में जहॉं भी बही खातों में मुंडी लिपि का प्रयोग किया जा रहा था, वहॉं काम भले ही मुनीम जी द्वारा किया जाता हो; लेकिन मुंडी लिपि का ज्ञान जिसकी दुकान है उसे अवश्य ही होता था। बिना इसके काम नहीं चल सकता था।
पिताजी को हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत और उर्दू का अच्छा ज्ञान था। वह राष्ट्रपति डॉ राधाकृष्णन के अंग्रेजी भाषण के उच्चारण और प्रवाह के अत्यंत प्रशंसक थे। दुकान पर भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और सरदार पटेल के साथ-साथ डॉक्टर राधाकृष्णन का भी बड़ा-सा चित्र उन्होंने लगा रखा था। जब से मैंने होश सॅंभाला, इन चारों चित्रों को दुकान पर सुसज्जित पाया।
वह उर्दू का अखबार भी पढ़ते थे। प्लेट को रकेबी तथा शेविंग को खत बनाना शब्द अक्सर प्रयोग में लाते थे। 9 अक्टूबर 1925 को उनका जन्म हुआ था। इस तरह जीवन के प्रारंभिक पच्चीस वर्ष रियासती नवाबी शासन के अंतर्गत उनके बीते थे। यह रामपुर में उर्दू प्रभुत्व के दिन थे।
अपने द्वारा स्थापित सभी संस्थाओं में उन्होंने भवनों पर नाम अंकित करने में देवनागरी लिपि का ही प्रयोग किया। इससे भी बढ़कर विक्रम संवत को पुराने देवनागरी अंकों के साथ उन्होंने लिखवाया था। यह प्रवृत्ति सुंदरलाल इंटर कॉलेज, टैगोर शिशु निकेतन और राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय में प्रत्यक्ष रूप से देखी जा सकती है।
मुनीम जी की मृत्यु के बाद भारी-भरकम बही खाता जो डबल फोल्ड वाला था, उसे मुंडी लिपि से देवनागरी लिपि में उतारने का काम बहुत ज्यादा श्रम-साध्य था। मुश्किल इसलिए भी थी कि पिताजी ने कभी बही खाता नहीं उतारा था। देवनागरी लिपि में उन्होंने नए वर्ष का बही खाता तैयार किया और फिर हर वर्ष यह कार्य मेरे लिए कर पाना बहुत सरल हो गया।
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लेखक: रवि प्रकाश रामपुर