पर्वत
पर्वत बने ही नहीं पर्यटन को,
ये पृथ्वीरूपी चादर को ,
ठीक से फैलाने के लिए,
रखे गए भारी साधन हैं।
इनके तोड़ने से,
बन जाते हैं महल ताज,
किले लाल,
मकबरे खास,
पर फिर ,
हल्की सी पृथ्वी – चादर ,
सिकुड़ती है अपने आयत से,
आ जाती है त्रासदी की सदी,
बिखेर देती है शताब्दी की स्मृति को,
दुःखद श्रद्धांजलि भावों में।
इन्हीं पर्वतों में वन हैं,
जिनसे बनते आलीशान शान,
सजाए जाते हैं ,
आपके ,
हमारे घर के ,
चौखट, गवाक्ष और द्वार,
मेज, कुर्सी ,
सोफा और मसनद।
फिर किसी रोज ,
वन बन जाते हैं,
विकराल,
दावानल,
अपनी लताओं सी,
लंबी जीभ से,
निगल लेते हैं ,
चेतन के कल को,
वास्तव में पर्वत और वन,
बने ही नहीं पर्यटन को।
पर्वत स्त्रोत हैं ,
जल के,
हमारे आपके कल के,
ऊर्जा के भंडार हैं अपरिमित,
हिम ,
खनिज इनमें अगणित,
इनमें क्षमता है,
बादलों के दल को भी,
झुका देने की,
प्रचंड वायु वेग को,
रोक लेने की,
नदियों के प्रवाह को ,
खेल खेल में खेलने की,
पर्वत बुत हैं कठोर उपमा की,
वास्तव में पर्वत पर्यटन के लिए बने ही नहीं ।।