पर्यावरण
संदेश
उठती हूं रोज की तरह
पर कुछ नया नहीं होता,
घर के पीछे मंदिर में
केवल घंटाध्वनि सुनाई देती है.
आजकल मुझे,
कोयल की मीठी कूक
आपस में गलबहियां करती डालियों
और पत्तों की सरसराहट,
बेखौफ परिंदों का बतियाना
स्पष्ट सुनाई देता है,
माना कि ये सन्नाटा
चुभता है हम सबको
पर महत्वाकांक्षाओं की अति
और प्रकृति को चुनौती भी तो
हमारी ही देन है,
आसमान में आड़ी-तिरछी रेखाओं में
उड़ते पंछियों का मनमौजीपन
संदेश है हम सबको
बस, बहुत हुआ
वक्त की दस्तक है ये
अब भी संभल जाओ,
प्रकृति पर अधिकार बराबर है सबका
जियो और जीने दो सबको,