पर्यावरण-संरक्षण
सह-सह अत्याचार मनुष्य के हुई धरा बेहाल,
यहाँ-वहाँ पर आ रहे नित्य नये भूचाल,
नित्य नये भूचाल हिमालय डोल रहा है,
प्रकृति पर मानव-अत्याचार की परतें खोल रहा है,
भागीरथी में बह रहे बड़े-बड़े हिमखण्ड,
सूरज की किरणें भी अब होने लगी प्रचंड,
होने लगी प्रचंड धरा का ताप बढ़ा है,
प्रगति-प्रगति कह मानव विनाश के द्वार खड़ा है,
द्वार खड़ा कर रहा मन ही मन चिन्तन,
रहे सुरक्षित जो धरा तभी रहेगा जीवन,
प्रगति से भी पूर्व आवश्यक पर्यावरण-संरक्षण।
रचनाकार – कंचन खन्ना,
मुरादाबाद, (उ०प्र०, भारत) ।
सर्वाधिकार, सुरक्षित(रचनाकार)।
दिनांक -२४/०१/२०१८.