पर्यावरण और प्रकृति
पर्यावरण और प्रकृति का
मानव ने बनाया क्या ये हाल।
आधुनिकता और नवीनीकरण के नाम पर
चलने लगे अब उलट ही चाल
कुछ सौ वर्ष हम पीछे जाएं
जीवन सरलता से पूर्ण पाएं ।
आज अजीब से मोड़ पर
मानव जीवन है खड़ा।
विनाश की राहों पर क्यों
अनजाने अग्रसर हो चला।
औद्योगिक क्रांति लाने को
खुद को उत्कृष्ट बताने को ।
वायु, जल और पृथ्वी को
नश्वर स्वयं ही कर चला ।
नवीनीकरण के नाम पर
अरण्य असंख्य काटे हैं ।
हरे भरे तरुओं की जगह पर
इमारतों के जंगल गाड़े हैं।
जलीय तटीय पशु -पक्षी
इनके घर भी उजड़े हैं
बस अपना घर बसाने को हम
इनका अस्तित्व नकारें हैं।
कारखाने- उद्योग, रात -दिन
विष, वायु- जल में उगले है
सांसे लेना दूभर है पर
फिर भी सब खामोश हैं
जीवन खुशियों को तरसे है।
प्रदूषण और जनसंख्या को
भरकस हमने बढ़ाया है
हमने दिन -रात बढ़ाया है।
वातावरण और पृथ्वी के
संतुलन को स्वंय ही बिगाड़ा है ।
जब आंख खुली तब ज्ञात हुआ।
कितना कुछ गंवाया है
दुर्लभ अति दुर्लभ पशु -पक्षी
जल स्त्रोत्र, हिमशिखरों
से खुद को वंचित पाया है।
असर हमारे अज्ञान का
तत्काल सामने आया है
कोरोना के रूप में देखो
विश्व पर राज जमाया है।
मानव -मानव से दूर हुआ
जीवन क्षण-भंगुर हुआ।
यहां-वहां नज़र जाए जहाँ
लशुन के ढेर नज़र आते।
फिर याद पुरानी आती है
दिल खून के आंसू रोता है।
प्राचीन मूल्यों को त्याग मनुष्य
घर मे बंद तरसता है।
आओ करें मिल प्रण आज ।
सादा जीवन व्यतीत करें ।
योग , सरलता को अपना
पर्यावरण को स्वच्छ करें।
नव जीवन का संचार हो फिर
फिर से खुशियां मुस्काये ।