परिस्थितियां
फिर आ गया मारीच स्वर्ण मृग रूप धर कर के,
और ज्यादा बढ़ गये है दशानन तो मर कर के।
राम संभलें नहीं राक्षस के छल से इस बार,
ये दुष्ट ले ही जायेंगे जनकनंदिनी हर कर के।
अबकी नहीं मिलेगी कोई लक्ष्मण रेखा रावण को,
सीता कहां छुपेगी इस बार। डर। कर के।
सुग्रीव, विभिषण, जामवंत सब भले थे तब तो,
अबकी रावण ही रावण बैठे हैं घर कर के।
नहीं पड़ेगी जरूरत विधाता को प्रलय की भी,
मर जायेंगे इंसान आपस में ही लड़ लड़ कर के।
आदमी आदमी से जलता है आजकल इस तरह ,
सूखी लकड़ियां जलती है ज्यों आपस में रगड़ कर के।
✍️ दशरथ रांकावत ‘शक्ति’