परिवर्तन
यह प्रथाएं हमारी पोषित हैं
हमने जना(जन्मा) है इन्हें
समय-समय पर
निज स्वार्थ हेतु
धार्मिक/अधार्मिक
समाजिक/असमाजिक
मकड़जाल में गूंथ कर।
कितनी क्रूर
और विभत्स थी
हमारी वह ‘सतीप्रथा’
जो नहीं रही अब
लील गया जिसे
समय परिवर्तन और
मानव की मनुष्यता भरी
मानसिक सोच ने
तोड़ दिया है जिसकी
समस्त लौह बेड़ियां
जागरूकता की
सामाजिक चेतना ने ।
ऐसे ही जाने कितने ही
पोषितों का गला घोंटा है
हमने तथा हमारी जागरूकता ने
जिसका हमें
कदापि दुःख नहीं होगा
क्यों कि-
हम जान चुके हैं अब
समय के साथ चलना।
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सरफ़राज़ अहमद “आसी”