परिन्दे धुआं से डरते हैं
वो जो लंबी उड़ान भरते हैं
वो ज़मीं पर कहां ठहरते हैं
जो समझते हैं आग की ताक़त
वो परिन्दे धुआं से डरते हैं
सोचकर फूल तोड़ना इनके
पेड़ पौधे हिसाब करते हैं
कुछ फ़सादी इसी में ख़ुश हैं
रोज़ जीते हैं रोज़ मरते हैं
-शिवकुमार बिलगरामी
क्या सितम है कि अब फ़रिश्ते भी
आसमानों से कम उतरते हैं