“पथ्थर रहूंगा हरदम”
लगता है किसी की मन्नत रंग ला रही है।
धीरे-धीरे ही सही मौत करीब आ रही है।
दुआ बेअसर थी, बेअसर ही रही उनकी।
शुकर है कोई बद्दुआ मेरे काम आ रही है।
अमूमन घाटे में रहा सच बोल-बोलकर मैं।
ये हवा भी किसी झूठ की सज़ा ला रही है।
मैं पथ्थर था, हूँ और पथ्थर रहूंगा हरदम।
ये कौन सी आग मुझे पिघलाने जा रही है।
इंतजार में हूँ बैठा सच के इक अरसे से मैं।
हर शाम-सहर बस यूं ही गुजर जा रही है।
मुकद्दर का लिखा वक्त कब बदला है किसका।
‘जिंदगी’ तेरे हिस्से का लिखा तू भी पा रही है।
-शशि “मंजुलाहृदय”