पथदृष्टा
बैठा पथ में पथदृष्टा सा,
सोच रहा हूँ कहाँ चलूँ,
लंबा जीवन पीछे छूटा,
अब किस पथ पर पांव धरूं…
कर्म किया और भाग्य से चाहा,
लेकिन मन का हाथ ना आया,
जहाँ खड़ा था वही खड़ा हूँ,
किससे मन की यह पीर कहूँ…
रिश्तो की मर्यादा नापी,
ऊँच नीच का पाठ पढ़ा
देखे अपने और पराये,
सबके ऊपर मान चढ़ा…
बीती बातों का लिये पिटारा,
गुज़रे लम्हों से जूझ रहा,
किये धरे अपने कर्मो का,
क्या हाथ मे आया ढूंढ रहा…
© विवेक’वारिद’*