पत्नी-स्तुति
हरि रूठ पड़े तो तुम हर पल, तत्पर रहती दुख हरने को,
जीवन में साथ तुम्हारा जब, फिर रही बात क्या डरने को,
तुमसे दूरी जब बढ़ती है, मैं कांति-हीन हो जाता हूँ।
हे! पापा जी की पुत्र-वधू, मैं तुमको शीश झुकाता हूँ।।1।।
लिखता हूँ तुमसे प्रेरित हो, मैं कवि तुम मेरी कविता हो,
तुझ बिन मुझमें है तेज कहाँ, मैं चंद्र और तुम सविता हो,
तुमने मुझमें जो ज्योति भरा, बस वही जगत तक लाता हूँ।
हे! पापा जी की पुत्र-वधू, मैं तुमको शीश झुकाता हूँ।।2।।
सावित्री पत्नी थी जिसने, यम से पति वापस पाया था,
तुलसी को उनकी रत्ना ने, ही तुलसीदास बनाया था,
हे! मन-श्वेता, हे! श्याम वदन, मैं काली दास कहाता हूँ।
हे! पापा जी की पुत्र-वधू, मैं तुमको शीश झुकाता हूँ।।3।।
लेखक कवि जन जो बड़े-बड़े, महिमा को तेरी जाने हैं,
थे हास्य-व्यंग्य में ताज व्यास, परमेश्वर तुमको माने हैं,
उनसे हटकर हर पल तुमको, मैं हरि से ऊँचा पाता हूँ।
हे! पापा जी की पुत्र-वधू, मैं तुमको शीश झुकाता हूँ।।4।।
हूँ राम नहीं मैं कर्मों से, फिर भी तुम मेरी सीता हो,
छूकर जिसको मैं धन्य हुआ, पावन पवित्र वह गीता हो,
सूर्योदय से पहले उठकर, नित दरश तुम्हारे पाता हूँ।
हे! पापा जी की पुत्र-वधू, मैं तुमको शीश झुकाता हूँ।।5।।
घरनी बिन भूत का’ डेरा घर, यह ज़ुमला बहुत सुनाते हैं,
‘है नारि जहाँ पूजी जाती, उस जगह देवता आते हैं’,
तुझको देवी कह प्राण प्रिये, मैं स्वयं देव हो जाता हूँ।
हे! पापा जी की पुत्र-वधू, मैं तुमको शीश झुकाता हूँ।।6।।
मुझमें तुझमें है फर्क बड़ा, मैं नर हूँ अरु तुम नारी हो,
मैथिलीशरण का कहना है, दो मात्राओं से भारी हो,
तुमसे जब-जब तुलना होती, मैं ऊपर उठता जाता हूँ।
हे! पापा जी की पुत्र-वधू, मैं तुमको शीश झुकाता हूँ।।7।।
खुशियाँ बिखेरती आयी हो, गम होगा तेरे जाने से,
यदि चढ़ जाएँ तेवर तेरे, कंकड़ मिलते हैं खाने से,
मैं सजा आरती की थाली, लो अगर कपूर जलाता हूँ।
हे! पापा जी की पुत्र-वधू, मैं तुमको शीश झुकाता हूँ।।8।।
यह निडर लेखनी बनी रहे, अब ऐसी गोट लगाना तुम,
इन उल्टी-सीधी बातों को, सुन कर के चोट न खाना तुम,
कुछ क्लेश है, मन में द्वेष नहीं, मैं कसम तुम्हारी खाता हूँ।
हे! पापा जी की पुत्र-वधू, मैं तुमको शीश झुकाता हूँ।।9।।
कवि―
© नन्दलाल सिंह ‘कांतिपति’,
ग्राम―गांगीटीकर पड़री, पोस्ट―किशुनदेवपुर, जनपद―कुशीनगर, उत्तर प्रदेश, भारत. पिन―274401, चलभाष―09919730863.