पत्थर की अभिलाषा
राह पर पड़े पत्थर ने सोचा इक दिन यह भी
क्या जीवन है ? नित प्रतिदिन ठोकरें
खाता फिरता हूं !
दिशाहीन मैं इधर-उधर लुढ़कता टूटता
बिखरता रहता हूं !
हेय दृष्टि का पात्र मैं !
नही दया का पात्र अंशमात्र मैं !
मै कठोरता उपमा धारक !
बुरे भाव व्यक्त परिभाषित कारक !
मैं स्पंदनहीन सही पर निरर्थक नहीं !
मेरा अस्तित्व बेकार !
सार्थक प्रयोग पर निर्भर मेरा जीवन जो
करे मुझे साकार !
कुछ आकांक्षाएं, कुछ अभिलाषाएं हैं मेरी !
जिनसे हो सार्थक मेरा जीवन इस संसार !
बनूँ किसी विद्यालय की नींव का पत्थर जो
ज्ञान का करे प्रसार !
या बनूँ उस पुल का पत्थर का जो जटिल
आवागमन का करे निस्तार !
या बनूँ किसी शिल्पकार की कलाकृति जिसका
जग सम्मान करे !
नहीं लालसा हो जाऊँ प्रतिष्ठित किसी मंदिर में जहां सब मेरा सम्मान करें !
अभिलाषा मेरी बन सकूं वीर शहीदों के स्मारक का एक पत्थर जिनका राष्ट्र् सम्मान करे !