पगडंडियां
गाँव की पगडंडियां
विधा- छंदमुक्त,स्वतंत्र
बोली- हिन्दी- देशज
27.03.2018 को लिखी गयी कविता
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कच्ची पक्की धूर सी गलियाँ
लगती थी सुहानी सी गलियाँ
एक मोड़ से खतम तो मिलती
आगे पतली सी पगडंडियाँ
मौसम हो कोई भी ,धूप हो के छाँव
पीपल,बरगद,नीम से ठंडे रहते गाँव
अपनेपन की गर्मी से पकते जामुन
आम,शहतूत इमली और न जाने का नाँव
पकड के दुपहरिया ,सब होते इकट्ठे इक ठाँव
हो हल्ला ,छिपमछिपाई,सब पगडंडियों में
कच्चे पक्के घर,औसारे ,बुलाते अपने पास
बारिश में भीगते भागते ,जब हो जाती शाम
सर्द दिनों में कच्ची मुंडेर पर से खाते फल
किनारे पगडंडियों के लगीे छोटे सी बगिया के
जंजीर ,पिड्डू ,पकडमपकडाई सब गलियों में
बहुत सुहानी लगती वो कच्ची पगडंडी,
जैसे अपना राज
वक्त के हाथों धुमिल हो खोगया,अपना राज और पाट ..
पाखी