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5 May 2024 · 1 min read

इक तेरी ही आरज़ू में

इक तेरी ही आरज़ू में
कभी दिन ढल जाए
कभी पलकों में रात ठहर जाए
रात की तन्हाई भी
जाने क्यों हुई आज बेवफा
गीत कोई गुनगुनाकर
गहरी नींद में धकेल दिया मुझे
इधर मदहोशी का आलम ये था
कानों कान खबर न हुई
कब रात अंधेरी ढली
कब चहकती भोर घर से चली
कोई पहली बार नहीं
हर बार हुआ है ये सिलसिला
मगर करूं भी तो क्या करूं
कोई राह भी अब नज़र आती नहीं
तुझे पाने की आरज़ू के सिवा
सच, कितना महंगा सौदा है
किसी अजनबी से यूं दिल लगाना
मगर क्या करूं, दिल है कि मानता नहीं
बड़ा जिद्दी है ये कमबख्त
मनाने से मानेगा नहीं
शायद इसीलिए हर शाम
रखता हूं दिल में बस यही आरज़ू कि
तेरे कदमों की आहट हो
इस दिल कि चौखट पर और
डूब जाऊं तेरे इंतज़ार की
खुशनुमा यादों में

Language: Hindi
15 Views
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