पक्षी
मैं पाखी दूर गगन की,
दूर देश में घुमती हूं।
रोक ना सके कोई सरहद हमको,
अपने आजादी से विचरतीं हूं।
खेलतीं आंख मिचौली तुफानों से,
पलति हूं मैं आंधी में।
बारिश,बरखा सब में,
युही मौज में रहतीं हूं।
मैं पक्षी दूर गगन की,
स्वभाव से घुम्मकड़ हूं।
ना कोई निश्चित ठिकाना,
ना बसेरा मेरा,
जिधर मन चाहता,
वहीं मैं रह लेती हूं।
मैं पाखी दूर कि,
अपने मन से जीती हूं।
पंखो के बल पे मैं,
घुम आती संसार सारा,
ईश्वर कि इस अजुबे में,
खोजतीं रहती हूं कुछ नया।
ना चिन्ता खानें पीने कि,
युही मौज में रहतीं हूं।
मैं पक्षी दूर गगन की,
दूर देश में घुमती हूं।