न जाने क्या ज़माना चाहता है
एक प्रयास
न जाने क्या ज़माना चाहता है,
मेरी ख़ुशियां मिटाना चाहता है।
मेरी मासूमियत को छीन कर क्यों,
मुझे शातिर बनाना चाहता है.
अभी शायद कमी बाक़ी है शायद,
जो फिर से आज़माना चाहता है।
मिटाकर तीरगी अब ज़िन्दगी से,
उजाले में वो आना चाहता है।
निगाहों से लगे सीधा जिगर पर,
वो इक ऐसा निशाना चाहता है ।
परिंदे की है बस इतनी सी ख़्वाहिश,
नशेमन फिर बसाना चाहता है।
अल्पना सुहासिनी