नैनों में प्रिय तुम बसे….
कुछ दोहे…
नैनों में प्रिय तुम बसे, अधर तुम्हारा नाम।
एक इशारा तुम करो, चलूँ तुम्हारे धाम।।
समता उसके रूप की, मिले कहीं न अन्य।
निर्मल छवि मन आँककर, नैन हुए हैं धन्य।।
चाहे कितना हो सगा, देना नहीं उधार।
एक बार जो पड़ गयी, मिटती नहीं दरार।।
पुष्पवाण साधे कभी, दागे कभी गुलेल।
हाथों में डोरी लिए, विधना खेले खेल।।
प्रक्षालन नित कीजिए, चढ़े न मन पर मैल।
काबू में आता नहीं, अश्व अड़ा बिगड़ैल।।
कला काल से जुड़ करे, सार्थक जब संवाद।
कालजयी रचना बने, लिए सुघर बुनियाद।।
मन से मन का मेल तो, भले कहीं हो देह।
प्यास पपीहे की बुझे, पीकर स्वाती मेह।।
पड़ें नज़र के सामने, किस मुँह शोशेबाज।
झूठी शान बघारते, आए जिन्हें न लाज।।
अहंकार के वृक्ष पर, फलें नाश के फूल।
हित यदि अपना चाहते, काटो उसे समूल।।
गली-गली में देख लो, चलते सीना तान।
संस्कारों की धज्जियाँ, उड़ाते नौजवान।।
अपने अपने ना रहे, घर में रहकर गैर।
रिश्ते नाजुक मर रहे, कौन मनाए खैर ।।
© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद