नीरज…
कैसा तेरा खेल है ईश्वर ,
जीवन कितना सूक्ष्म व नश्वर !
क्या मेरी एक इच्छा पूर्ति
कर पायेगी तेरी नियति?
तू जब कोई पेड़ लगाये
पात्र मेरी मिटटी का बनाये
बीज मेरे मित्र को बनाके
इस विरहअश्रु से अंकुर आये
फिर माली का धर्म निभाकर
तने पर उसके सामर्थ्य लगाकर
शाखाओ मे सबको बिठाकर
यादो की मलय समीर बहाये
जब तरु मंद पवन से झीमे
कौतुहल खगकुल का उसपर
रंग बिरंगी जीवों का बसेरा
और उसमे हम सबका भी डेरा
हरित तृणों का नृत्य आलौकिक
पुष्प- फलो के सुहाने सपने
अवनि से अम्बरतल तक देखु
सखा सारे उसके और अपने
इंद्रधनुष के सारे रंग
ऊषा पर देखु क्षितिज को संग
पर तेरी सृष्टि की क्रीड़ा
सोचके मैं रहजाता दंग!!
एक दिन फिर आज सा होगा
इसलिए कुछ ऐसा माँगा
फूल बिखर सब जायेंगे फिर भी
अटूट रहे ये प्रेम का धागा
जब तू बृक्ष को मिटटी करेगा
आकर वो इस पात्र मे गिरेगा
उसकी मिटटी मेरी होगी
मेरी माटी वो अपनी करेगा
उस मिटटी से तू जो भी बनाये
उसमे मेरा कुछ उसका समाये
फिर जन्मान्तर तक मेरा मित्र,
मित्रता फिर शास्वत हो जाये!!