नींद और ये रातें ।
सितारों से अपनी दोस्ती तो नही
जो मुझें हर रात जगाए रखता है
बेवज़ह ही हम लेटे हुए रहते है
और मेरे आंख की नींदों को
सुबह तक कमबख्त उड़ाए रखता है ।
हर सुबह उठने की तमन्ना मेरे
सपनों की तरह चूर चूर हो जाती है
मैं तेरा हाथ पकड़ता हु तू दूर हो जाती है
ये मेरी नींद की गलती है या आंखों की
जो मुझें शामों तक सुलाए रखता है ।
तेरा चांद से कोई राब्ता है क्या
तू उससे हर रात गुफ़्तगू करता है
इक सारे शहर को अंधेरा करके
तू अपने छत पे चांद बुलाए रखता है ।
– हसीब अनवर