निश्छल प्रेम के बदले वंचना
प्रकृति,
मनमोहक है न
सदा निश्छलता से स्नेह करती है
भयावह रुप भी दिखाती
हमारे ही द्वारा किए कार्यों
की प्रतिक्रिया के रुप में
परंतु दोष इन्हें ही दोगे
यही तो है प्रकृति
कितने ही आशियानों के लिए
ज़र्रा ज़र्रा खत्म कर दी जाती है
और जरा सी आह में सब कुछ मिटा देती है
ललित दृश्यों की चाह रखते हो
हां तुम
मनोहर वातावरण की कामना भी
किंतु वृक्षों की कब्र पर बनी उस मॉल में
तुम चाव से जाओगे ए.सी. की हवा खाने
हां उसी जगह
जहाँ कभी पेड़-पौधों की शीतल मंद हवा थी बहती
आज इमारतों के लपेटों में दब गई है
क्या मिला प्रकृति को हमसे?
निश्छल प्रेम के बदले वंचना ।
~ कुmari कोmal