*निर्झर*
कभी पर्वत की चोटी पर इकट्ठा हुआ
जल का एक विशाल स्रोत था –
जब तक था रुका हुआ
ऊर्जा से ओतप्रोत था –
फिर उसने बहाना शुरू किया और उसकी स्थितिज ऊर्जा – पलभर में बन गई गतिज ऊर्जा –
रास्ते में आने वाले
हर अवरोध,
हर रुकावट को पार करता हुआ –
चट्टानों से, घने जंगलों से गुजरता हुआ –
चल पड़ा वह द्रुत गति से –
हर तरह का सहयोग मिला उसे प्रकृति से –
उसने भी अपना हर कर्तव्य निभाया –
जंगल के जीव जन्तुओं की प्यास बुझाई –
बंजर धरती को सींचकर
उपजाऊ बनाया –
कल-कल की मधुर ध्वनि से
वातावरण को गुंजायमान किया –
और सैलानियों को नयन सुख का
आनंद भी प्रदान किया – चित्रकारों का कैनवास
और कवियों की प्रेरणा बना –
मनीषियों का चिंतन स्थल
और संगीतकारों की वेदना बना –
अपने लिए उसकी
बस इतनी सी चाह रही
कि समस्त प्राणियों को
वह जीवनी शक्ति दे सके –
प्यास से तड़पते
हर मानव को, पंछी को आजीवन तृष्णा से तृप्ति दे सके –
और इसी लक्ष्य के पीछे-पीछे
अपना सर्विस से गँवाया –
उद्गम स्थल से मीलों चलकर
अपना अस्तित्व मिटा कर
अन्ततः
अनंत सागर में समाया।