ना जाने क्यों?
ना जाने क्यों?
धरती का अक्ष
मेरे घर को कुछ डिग्री झुका देता है।
ना जाने क्यों?
मेरे हिस्से का चाँद
किसी और की छत से दिखाई देता है।
ना जाने क्यों?
सातों घोड़े सूरज के
मेरे निवास की खिड़की में हिनहिनाते नहीं।
ना जाने क्यों?
ब्रह्मांड के चेहरे की झुर्रियां
मेरे मकां की नींव को कंपकंपाने लगती हैं।
ना जाने क्यों?
अनगिनत सितारों की अपरिमित ऊर्जा
मेरे छप्पर पर बिजली बन कर गिरती है।
ना जाने क्यों?
अनन्तता में स्थित तिमिर
मेरे गृह-प्रकाश को लील लेता है।
ना जाने क्यों फिर भी!
मानस में जलता उम्मीद का दीपक
मेरे घरौंदे में इक लौ पैदा कर देता है।
ना जाने क्यों…
सब-कुछ मिलकर भी – यह दीपक बुझा नहीं पाए।