नास्तिक सदा ही रहना…
नास्तिक सदा ही रहना…
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मन से अहं निकाल लो,फिर नास्तिक सदा ही रहना…
खुद को यदि तुम जान लो,फिर धर्मविमुख ही रहना।
माता-पिता गुरु हरि रूप है,उन्हें श्रद्धा के पुष्प चढ़ाओ ,
करुणा के भाव जगा लो,फिर नास्तिक सदा ही रहना…
बहस और विवाद से, मिलते कहाँ प्रभु हैं ,
हर जुर्म का हिसाब तो,करते यहाँ प्रभु हैं।
नफरतों के जहर को, तुम प्रेम से मिटा दो ,
इस सत्य को स्वीकार लो,फिर नास्तिक सदा ही रहना…
हलाल हो या झटका,बिलखते तो पशु बेजुबां हैं,
कैसे मिलोगे खुदा से,तड़पते जो तन बे-इंतिहा हैं।
ढाई अक्षर जो प्रेम का,सिखलाता है धर्म मानवता ,
इसी राह पर चलो ना, फिर नास्तिक सदा ही रहना…
आडम्बरों से किसी ने, यहाँ पाया नहीं है ईश्वर ,
गंगा में तुम नहाओ या जमजम का जल लगाओ ।
भक्तवत्सल की छवि तो,बस तेरे अंतस में छिपा है,
अंतस को बस निहार लो,फिर नास्तिक सदा ही रहना…
मौलिक एवं स्वरचित
मनोज कुमार कर्ण