नारी
तुम खुली हवा में घूमने वाले
मैं पिंजरे में बंद बटेर हूँ
कहते तो है सब देवी मुझको
पर मैं गृह मंदिर में कैद हूँ ।
मेरा दर्द तुम क्या समझोगे
ये दर्द दिन का नहीं अमरता है
इक दिन जरा ठहरो घर पे
क्यों मन तेरा नहीं लगता है?
सिर्फ रूप मेरा देखते हो
वासना से भरे पड़े हो
देखी नहीं कहीं भी नारी
जाती वहीं है नजर तुम्हारी।
पूछा कभी बहन से तुमने
कौनसा है कष्ट तुम्हें
बहन बेचारी करें ही क्या जब
कंस सा ही भाई मिले।
उर में अपने अश्रु छुपाए
होठों पे मुस्कान रखती हूँ
पुत्र, पिता, परिवार सबके लिए
उपवास अनेक भी रखती हूँ।
छोटी सी दिनचर्या में
आराम कभी न करती हूँ
यम से भी जो भिड़ जाए
सावित्री सा दिल रखती हूँ।
निज वेदना के सागर में डूबी
पर का उद्धार पर करती हूँ
जितने भी हो कष्ट मुझे पर
वरदान तुम्हें सब देती हूँ।
नन्दलाल सुथार रामगढ़