नापाक मेहबूबा
आज़माईश की बहोत पर, तौबा न हुआ उन इश्क़ का,
जो कहि बातें वहि सुन, दिल उसपे अमल कर लीया।
सरफ़रोशी के जद में फिर, घिर गए कुछ इस कदर की,
शोहदों ने उसपार के मुझे, अग्यार मुक्कमल कर दीया।
मिले थे जो गले हम से, बड़े ही जोश में भरकर,
न था अंदाजा हांथो में, छिपा रक्खे थे वो खंजर।
निगाहें कत्लखानो से, हुवे कई मर्तबा घायल,
मगर मालूम न था की, दिखेगा ऐसा भी मंजर।
कसम हरबार ली उसने, रहम हरबार की हमने,
मगर अफ़सोस फहमी में, थे हम किस कदर डूबे।
जिसके सहते रहे नख़रे, समझ के पाक मेहबूबा,
छलावा थी सियासत की, जो न पढ़ पाये मंसूबे ।
हदिशे आप बीती की, सुनाये हम तुम्हे क्यूँकर,
कहि न खौपजदा वो हो, जबानी ये मेरे सुनकर।
जो कातिल बन के हैे बैठे, अभी भी मेरे आंगन में,
इधर हम बेतक्कलुफ से, सितमगर के सितम सहकर।
जो बेगम घर की घर मे ही, शौहर की न करे ख़िदमत,
जो आपसी फूट रंजिस में, करे बदहाल सी नीयत,
अजी उस मुल्क की मेहबूबा, वही नापाक ही होगा,
न जाने कब जो खड़का दे, मुंवे आंतक की सीरत।
©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित ११/०२/२०१८ )