नाचनेवालियाँ
अब हमें ज़िन्दगी की ख़बर मिल रही
मौत से जब हमारी नज़र मिल रही।
ज़ीस्त उस रोज़ से बे-असर लग रही
मौत जब से हमे बन सँवर मिल रही।
जनवरी सर्द हम मांगते रह गए
पर हमे जून की दोपहर मिल रही।
इक ग़लत फ़ैसला एक दिन था किया
और उसकी सज़ा उम्र भर मिल रही।
शहर में अब कमी-ए-तवाइफ़ नहीं
नाचनेवालियाँ फ़ोन पर मिल रही।
-जॉनी अहमद ‘क़ैस’