‘नशा नाश का कारण’
जीवन कंटक हो जाए, करने जो नशा लगे।
लोक लाज पद और नाम, ये सदा उनको ठगे।।
सम्मान उसे मिले न कभी, जग सदा उसपे हँसे।
कतराते सखा सभी ही, भाई बंधु भी सगे।।
कर्तव्य से हो विमुख वह, दुर्व्यसन में पड़ा रहे।
मान मर्यादा बेचकर, सड़कों पे पड़ा रहे।।
संगिनी और मात-पिता, सदा रहते हैं दुखी।
बच्चों को मिल नहीं पाती है, जीवन में खुशी।।
नशा नाश का कारण है, बात कभी न भूलना।
व्यसनों में पड़कर काल के, फंदे पर न झूलना।।
इस जगत में बहुत कुछ है, स्वाद पाने के लिए।
फिर किस लिए हे मनुज तू, इस गरल को है पिए।।
हिम से आच्छादित शिखर पखेरू की पंक्तियाँ।
ओस की बूँद पल्लव पर ज्यों मुक्ता की लड़ियाँ।।
चख प्रकृति का नशा तू चाँद, तारे, सावन- घटा।
झरते प्रपात-सरिता के, नीर से तृष्णा मिटा।।
-गोदाम्बरी नेगी