नव रूप
रात की स्याही घोलकर
सूरज दिन पृष्ठ पर
कुछ अंकित करने लगा है।
किरणों के शब्दों से छूकर
हृदय सुनहरी गुलाल
मुख पर मलने लगा है।
पा प्रकाश का अवलंबन
अन्तस का धुंधलका
धीरे-धीरे छॅंटने लगा है।
मुरझा गया था जो मुख
कमल का अंधियारी रात में
फिर से खिलने लगा है।
भौंरों की गुनगुन में
नवप्रीत का नवगीत
फिर से बजने लगा है।
रुक गया था कारवाॅं
थकन से चूर होकर
नई ऊर्जा पा चलने लगा है।
वह नहीं रह गया वह अब
एकाकार हो ब्रह्म में
नए सांचे में ढलने लगा है।
नई चेतना हुई जाग्रत
प्रकृति के नव रूप को
चितेरा चित्रित करने लगा है।
-प्रतिभा आर्य
चेतन एनक्लेव
अलवर (राजस्थान)