नर्म लाल लहू से अधर
भानु सी अंगीठी में तप रहे हैं
अंगार सी गर्म सांसें उगल रहें हैं
उसके नर्म लाल लहू से अधर
व्याकुल हैं मिलने को मेरे अधर
जो हैं अशांत,अतृप्त, झुलसे हुए
वियोग की चलती झुलसती लू से
पिंघला देंगे मेरे अंदर का लावा
जो जमा हुआ है मेरी भुपर्पटी पर
वर्षों से तरसता उसके अनुराग को
जो मिलते ही कर देंगे क्षत विक्षत
मेरे प्यासे बहकते तन बदन को
उसके अंगारों से दहकते अंग प्रत्यंग
सांसों की उष्मा और तन की खुश्बू
और अकस्मात प्रेम अनुराग प्रहार
हर्षोल्लास,मंद मंद मद्धिम मुस्कान
मुखमंडल पर बदलते हाव भाव
और चेहरे का गुलाबी होता रंग
प्रेम बरसात में भिगो देंगे सर्वस्व
कर देंगे खंडित काया को विखंडित
उडेल देंगे जमाने भर की खुशियाँ
मेरे मन मन्दिर के बिल्कुल अंदर
कर देंगे अपूर्ण प्रेमिल स्वप्नों को पूर्ण
और कर देंगे मुझे पूर्णिमा के चाँद सा
शालीन,शान्त,सहज,सरस और तृप्त
और छोड़ जाएगी फिर वो मुझे
इस निष्ठुर,निर्दयी संसार में अकेला
अपनी रंगीन,मदहोश यादों के सहारे
दी हुई खुशियों और प्रेम अनुभूति संग
शेष जीवन को जीने के लिए
सुखविंद्र सिंह मनसीरत