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1 Jul 2021 · 4 min read

ननकी काकी (कहानी)

दोपहर बाद मुखियाइन के घर रोजाना महफिल जमती है, आज भी जमीं थी। पंडिताइन बोलीं आज ननकी काकी नहीं आईं, नाम तो ननकी बाई था पर प्रेम से सभी ननकी काकी बुलाते थे। ठकुराइन कहन लगी हां पतौ नइ काय नइ आईं, वे तो सबसे पहले आन वाली हैं। मुखियाइन ने सब की ओर मुखातिब होते हुए कहा अरे भादों का मईना चल रओ है, शायद जई मईना में मोहन नई रओ थौ। 10 साल हो गए आज मोहन की तिथि तो नईं है? वे आज हवन करवाती हैं, पंडितन कों भोजन कराती हैं। लो वे आ गई बड़ी लंबी उमर है तुमरी, हम सब तुमरे बारे में ही बतिया रहे थे। अरे पंडिताइन काहे लंबी उम्र की बात करत हो, अब तो भगवान उठा ले। आज मोहन की तिथि की पूजा कराई थी सो अब निपटी हूं, आने कौ मन तो नईं हो रऔ थौ फिर सोचा चलो घर में भी का करूंगी। मुखियाइन बोली हां हम बात ही कर रहे थे आज वह जिंदा होता तो मोड़ा मोड़ी बारो हो गयौ हो तो। दुख सुख घर गृहस्ती की चर्चाएं कर मंडली अपने अपने घर चली गई। शाम को हल्के कक्का भी घर आ गए, मोहन की बीमारी में खेती-बाड़ी बिक गई थी, ब्लड कैंसर था, मुंबई तक इलाज कराया पर बचा ना सके। तब से काका मेहनत मजदूरी के छोटे-मोटे काम कर घर चला रहे थे। रात में थोड़ा बहुत खा पीकर दोनों सो गए। काकी मोहन की याद करते-करते ठंडी सांसे ले रही थी, काका ने कहा काय नींद नहीं आ रही, अब कब तक याद करती रहोगी? वह तो भगवान का था, सो चलो गयो भगवान के घर। काकी ने कहा तुम भी तो कहां सो रहे हो? तुम्हें काये नींद नहीं आ रही? अरे ननकी हमें तो तुम्हारी चिंता हो गई है, अगर हम नहीं रहे तो, तुमरौ का होयगौ। अरे ऐसी बातें न करो, तुम्हें भगवान अच्छे रखें सो जाओ। तुम भी अब बूढ़े हो गए हो, तुमसे भी अब काम नहीं बनें, मैं सोच रही थी मैं भी तुम्हारे संग काम करन लगूं। अरे मोहन की मां मेरे रहते तो तोए कछु नईं करन दऊं अबै तो भौत जान है इन बूढ़े हड्डों में, बातें करते करते दोनों सो गए। एक दिन अथाई पर महफिल जमीं थी, छोटे बड़े बहुत से गांव वाले बैठे थे, कि हल्के काका गश खाकर गिर पड़े मुखिया जी और अन्य लोग उन्हें शहर ले गए। इधर काकी की चिंता में हालत बिगड़ रही थी, की खबर आई कक्का नहीं रहे। काकी पर तो जैंसे वज्रपात हो गया, आंखें फटी की फटी रह गईं, मुंह से कुछ निकल नहीं रहा था, गांव की महिलाओं ने जैसे तैसे संभाला। क्रिया कर्म के बाद तेरहवीं हो गई, पर काकी उस दिन से सुनसान हो गईं। खाना पीना सोना कोई होश न रहा एक दिन मुखियाइन, पंडिताई, ठकुराइन एवं अन्य महिलाएं काकी के घर आईं। काकी जो भगवान को मंजूर था सो हो गया, अब तुम संमलो, घर से बाहर निकलो,सब से मिलो जुलौ तौ दुख कछु कम होयगौ। जब तक जीना है सो सीना है। तुम चिंता मत करो हम सब तो हैं। तुम्हारी हालत से हमको भी दुख हो जाता है। मुखियाइन काकी को अपने घर ले गईं, सभी महिलाएं देर शाम तक बैठी रहीं। मुखियाइन बोलीं काकी तुमरी हालत तो, हम सब से छुपी नहीं है, अब तुम रोटी पानी हमारे घर ही कर लिया करो, यह भी तुम्हारा घर है सबने मुखियाइन की बात का समर्थन किया। काकी सहित सब अपने अपने घर चलीं गईं। दूसरे दिन भोर में काकी मुखियाइन के घर गई और बोली मुखियाइन बुरा मत मानो, तुमने कल जो बात कही, तुम्हारा बड़प्पन है, लेकिन रोज-रोज हम तुम्हारे घर कैसे खाएंगे? अगर तुम हमें कोई छोटा मोटा काम दे दो तो हमारी गुजर बसर हो जाएगी। मुखियाइन बोलीं अरे नई-नई काकी खेती-बाड़ी बिकबे के बाद भी काका ने आपको काम नहीं करने दिया। अब कितने दिन बचे हैं आपके, हमें पाप में मत धकेलौ,। नईं मुखियाइन जैंसे बे थे, सो हम हैं, उनने भी तो मेहनत मजदूरी करके अपना गुजारा करो। ऐसे ही हम कर
लैहैं, तुम हमें घर को, कह रही हो तो हमें घर जैसा काम भी करन दो, मुखियाइन निरुत्तर हो गईं। काकी खुशी खुशी मुखियाइन पंडिताइन ठकुराइन के छोटे-मोटे काम कर गुजारा करने लगीं। जिंदगी बीतने लगी। एक दिन मुखियाइन ने कहा काकी नहीं आईं, बे तो भोर मैं ही जल चढ़ाकर जल्दी चलीं आतीं थीं, चाय भी यहीं पीती थीं, आज क्या हो गया? देखो तो काकी के घर देखो। लोग काकी के घर गए, देखा तो काकी चिर निद्रा में लीन हो चुकीं थीं, जैंसे कह रहीं हों, मोहन, मोहन के बापू, मैं भी तुम्हारे पास आ रही हूं सभी की आंखें काकी की याद में नम थीं, उनके अच्छे व्यवहार को याद कर रहे थे।

सुरेश कुमार चतुर्वेदी

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