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10 Jun 2023 · 1 min read

नज़्म/गीत – वो मधुशाला, अब कहाँ

वो यारों के जत्थे साकियों की अठखेलियाँ,
वो मयकशों की अदब वो उनका अपना जहाँ,
वो प्यालों में महबूब को नजर आते यार के निशाँ,
वो अमन चैन की होती बातें वो फिक्र-ए-गुलिस्ताँ,
वो मयखानों के पैमानों से छलकती मदहोशियाँ,
वो बुजुर्गों को भी जो सदा रखती थी जवाँ,
मैं खोजता हूँ उसे वो मधुशाला है अब कहाँ ?

जहाँ हों रातों ही रौनक चलें मयकशों के तमाशे,
जहाँ ना जातियों के बन्धन ना हों धर्मों के काँटें,
जहाँ ना हो गुफ्तगू ऐसी जो आपस को ही बाँटें,
जिनकी हों जेबें खाली जाम-ए-सहबा उनको भी मिले,
होकर मदमस्त मयकश जब सूनी राहों से गुजरें,
जहाँ सताए ना डर कोई ना पड़े जानों के लाले,
ऐसी मधुशाला ओ रब्बा तू इस जग में बना दे,
वो मयकशों के ठाठ तू फ़िर से सबको दिखा दे।

(सहबा = वाइन)

©✍️ स्वरचित
अनिल कुमार ‘अनिल’
9783597507
9950538427
anilk1604@gmail.com

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