नकाब खुशी का
सच छुप गया है झूठ के हिजाब में।
विश्वास खो चुका है रात के ख्वाब में ।।
मर्म की समझ नहीं,ज्ञान सभी दे रहे,
वैमनस्य पाठ लिखा,किस किताब में।
तर्क और कुतर्क में, वक्त जाया कर रहे ,
ढूंढता न गलतियां, अपने ही हिसाब में ।
अर्थ और काम के हो गए गुलाम सब,
आत्मा भी बिक गई,हुस्न के शबाब में ।
इंसानियत को मारकर पी रहे लहू सभी,
जिंदा हैवानियत हुई, धर्म की शराब में।
रिश्ते बनावटी हुए,गूंगे बहरे समाज में,
न्याय को तलाशती, सवाल के जवाब में।
सत्य का दम घोंट रहे ,झूठ का प्रलाप है,
असत्य को बिछा पहन ओढ़ते नकाब हैं।
नमिता गुप्ता
लखनऊ